अनमोल – अमोल पालेकर ( प्रस्तुति रवि के ग़ुरूबक्षाणी )
अमोल पालेकर के बारे में सोचते ही ‘गोलमाल’ याद आती है. छोटा कुर्ता, राम श्याम और नकली मूंछें. फिर वो डायलॉग कि ‘कबीर को पढ़ने-पढ़ाने के लिए पूरा जीवन ही कम है, पर मैं कोशिश करूंगा कि साढ़े सात बजे तक खत्म कर दूं.’ अमोल पालेकर के चाहने वाले ये मानते हैं कि जैसी सौम्यता उनके ज्यादातर किरदारों में रही, वैसी ही उनके व्यक्तित्व में थी और इसीलिए उन्होंने बहुत चमक-दमक नहीं चाही.
वो हमारी तरह ही किराये का कमरा खोजता, कॉलेज में लड़कियों को चिट्ठी लिखता, बस की कतार में खड़ी लड़की को चुपके-चुपके निहारता, बैचलर लॉज में रहते हुए पानी का इंतजार करता, क्लर्क की नौकरी करता, कॉफी हाउस में लड़की के साथ बैठा रहता, अपने दोस्तों के साथ दुनिया जहान की बातें करता, बीच-बीच में अपने बाल को कंघी करता, रुमाल से मुंह पोछता.
वो कभी किसी दूसरी दुनिया का सुपरमैन नहीं लगता. झोला लटकाए, बजाज स्कूटर को किक मारते, लड़क...