Thursday, March 28

जोशी-मोदी से पहले यहां नेहरू ने फहराया था तिरंगा:कहानी श्रीनगर के लाल चौक की; यहां तिरंगा क्यों नहीं फहराएंगे राहुल गांधी?

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी का भाषण चल रहा था, ‘ये जो तिरंगा है न, ये श्रीनगर में जाके हम इसको लहराएंगे। कोई नहीं रोक पाएगा। कोई तूफान, कोई आंधी, कुछ नहीं रोक पाएगा। ये झंडा, ये तिरंगा वहां पे जाकर लहराएगा…’

राहुल गांधी ने लाल चौक का नाम नहीं लिया था, लेकिन जनवरी 2023 की शुरुआत में पंजाब कांग्रेस के नेता रवनीत सिंह बिट्टू ने दावा किया कि 30 जनवरी को राहुल गांधी लाल चौक पर तिरंगा फहराएंगे।

इसके बाद जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल ने कहा कि हम लाल चौक पर तिरंगा फहराने के RSS के एजेंडे में यकीन नहीं करते। इसलिए झंडा श्रीनगर के पार्टी दफ्तर में फहराया जाएगा। राहुल गांधी की लाल चौक से दूरी बनाने पर BJP भी सवाल खड़े कर रही है।

श्रीनगर के लौल चौक की कहानी। क्या यहां झंडा फहराना सिर्फ RSS का एजेंडा है? ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन पर राहुल गांधी पार्टी दफ्तर पर तिरंगा फहराएंगे, लेकिन उससे महज 1 किमी दूर लाल चौक पर क्यों नहीं…

मॉस्को के रेड स्क्वायर के नाम पर लाल चौक नाम पड़ा

लाल चौक का नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस के लड़ाकों ने मॉस्को के रेड स्क्वायर के नाम पर रखा था, क्योंकि वे भी पाकिस्तानी आक्रमण से लड़ रहे थे। कहा जाता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के मेंबर बीपीएल बेदी और उनकी पत्नी फ्रीडा का काफी प्रभाव था।

बीपीएल बेदी ने ही नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए पहला घोषणा पत्र ‘नया कश्मीर’ लिखा था। यह सोवियत यूनियन से प्रभावित था। बीपीएल बेदी अभिनेता और डायरेक्टर कबीर बेदी के पिता थे।

‘द राइज एंड फॉल ऑफ न्यू कश्मीर’ के लेखक एंड्रयू व्हाइटहेड अपनी किताब में 8 नवंबर 1947 को छपी टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के हवाले से लिखते हैं कि ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस का लाल झंडा शहर की हर पब्लिक बिल्डिंग में लगा हुआ है।

शहर के मध्य मुख्य चौक में जिसका नाम बदलकर रेड स्क्वायर यानी लाल चौक कर दिया गया है, एक विशाल लाल झंडा फहरा रहा है। इसके नीचे मजदूर और आम लोग बैठकर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की ताजा खबर सुन रहे हैं और सियासी गपशप में मशगूल हैं।

1980 में बजाज इलेक्ट्रिकल्स ने चौक पर एक क्लॉक टॉवर का निर्माण कराया। इसके बाद यह चौक राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है। देखा जाए तो लाल चौक पर तिरंगा फहराना देशभक्ति के साहसिक कार्य के रूप में देखा जाता रहा है। हालांकि, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से यहां पर अब तिरंगा लगातार फहरा रहा है।

  पाकिस्तान के खिलाफ पहले युद्ध की जीत की घोषणा लाल चौक से हुई

अक्टूबर 1947 की बात है। पाकिस्तानी सेना आदिवासियों के वेश में जम्मू-कश्मीर पर कब्जे के लिए घुसपैठ कर देती है। इससे राजा हरि सिंह घबरा जाते हैं और जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय वाले घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करते हैं। इसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को राज्य की अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया जाता है।

जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह ने राजशाही के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन चलाने पर मई 1946 में शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था। अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाने की घोषणा होने के बाद शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया गया। इसके बाद भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर में घुसे पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ देती है।

1948 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने लाल चौक पर एक साथ खड़े होकर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में जीत की घोषणा की।

  लाल चौक से ही नेहरू ने कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का वादा किया था

जब 1948 में प्रधानमंत्री नेहरू ने इसी लाल चौक पर तिरंगा फहराया तो शेख अब्दुल्ला ने आमिर खुसरो की लिखी पर्शियन कविता पढ़ी…

‘मन तू शुदम तू मन शुदी,

मन तन शुदम तू जान शुदी,

ताकस न गोयद बाद अज़ीन,

मन दिगारम तू दिगारी’

इसका हिंदी में अर्थ है…

‘मैं आप बन गया और आप मैं बन गए।

मैं आपका शरीर बन गया और आप मेरी आत्मा बन गए।

अब कोई कह नहीं सकता कि हम अलग-अलग हैं।’

इस दौरान नेहरू ने लाल चौक से कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का वादा भी किया था, लेकिन यह हुआ कभी नहीं। कश्मीरियों ने उस वक्त इसे बड़े विश्वासघात के तौर पर देखा। इसके बाद 1949 में नेहरू ने सबसे पहले शेख अब्दुल्ला को बीपीएल बेदी को हटाने के लिए कहा।

बेदी के पास उस वक्त जम्मू-कश्मीर प्रशासन में कोई आधिकारिक पद नहीं था, लेकिन वह सलाहकार की भूमिका में थे। चार साल बाद कश्मीर षड्यंत्र मामले में शेख अब्दुल्ला को देशद्रोह के आरोप में जेल जाना पड़ा।

1963 में यहां पर पहली बार हिंसा देखने को मिली

कश्मीर की राजनीति के केंद्र में कई दशकों से लाल चौक का काफी अहम स्थान रहा है। हालांकि 1963 में मुख्यमंत्री गुलाम मोहम्मद बख्शी के समय हजरत बल दरगाह से पवित्र अवशेष की चोरी की अफवाह फैली। यह जगह अफवाह का विरोध करने वाली भीड़ द्वारा हिंसा की जगह बन गई।

1975 में एक बार फिर से शेख अब्दुल्ला ने लाल चौक का इस्तेमाल इंदिरा गांधी के साथ हुए समझौते को भीड़ को समझाने के लिए किया। यह वह दौर था जब पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना था और इंदिरा गांधी का रुतबा चरम पर था।

  1985 में फिल्म देखने के बाद युवकों ने शेख अब्दुल्ला का पोस्टर फाड़ा

पैलेडियम सिनेमा लाल चौक पर मेन लैंडमार्क था और यहां पर नेहरू-अब्दुल्ला रैली की तस्वीरें दिखाई देती थीं। हालांकि, 1985 में कश्मीर में आतंकवाद की आहट सुनाई देने लगी थी। इसी बीच युवकों के एक समूह ने लाल चौक पर लगे शेख अब्दुल्ला के एक विशाल पोस्टर को फाड़ दिया।

कहा जाता है कि इन युवकों ने 1981 में आई एंथोनी क्विन की फिल्म द लायन ऑफ द डेजर्ट देखी थी। यह फिल्म लीबिया के हीरो उमर मुख्तार पर है जिन्होंने इतालवी शासकों से लड़ाई लड़ी। इसके बाद इस फिल्म को राज्य में बैन कर दिया गया।

आतंकियों के कब्जे के बावजूद NSG ग्रुप यहां तिरंगा फहरा कर लेता गया था टीवी

आतंकवाद की शुरुआत के बाद लाल चौक पर कब्जा कश्मीर का प्रतीक बन गया। इस वजह से यह आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच एक युद्धक्षेत्र में बदल गया। 2014 में जम्मू-कश्मीर के अखबार अर्ली टाइम्स में एम के मट्टू ने लाल चौक की घटना का जिक्र किया है।

इसमें वह बताते हैं कि कैसे 1990 में आतंकवादियों ने चौक पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद लाल चौक पर एक कलर टीवी रख दिया और शर्त लगाई थी कि जो कोई भी यहां पर तिरंगा फहराएगा वह इसे अपने साथ ले जाएगा।

मट्‌टू के मुताबिक, आतंकियों के मौजूद होने की जानकारी होने के बावजूद NSG कमांडो का एक ग्रुप यहां पर तिरंगा फहराकर यह चुनौती जीत लेता है और कलर टीवी को अपने साथ ले जाता है। NSG ने इस टीवी को कई सालों तक अपनी मेस में रखा। मट्टू लाल चौक को कश्मीर की राजनीतिक आत्मा बताते हैं।

आतंकियों की धमकी के बावजूद जोशी के साथ मोदी ने फहराया था तिरंगा

1990 के दौर में BJP भी आतंकियों की इस धमकी को चुनौती के तौर पर स्वीकार करती है। दिसंबर 1991 में BJP नेता मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से ‘एकता यात्रा’ शुरू की जाती है। एकता यात्रा कई राज्यों से होते हुए कश्मीर पहुंचती है। मुरली मनोहर जोशी के साथ उस वक्त नरेंद्र मोदी भी थे।

एक बातचीत में जोशी बताते हैं कि हम वहां 26 जनवरी को झंडा फहराना चाहते थे, क्योंकि सर्दी में राजधानी बदल जाती थी। लोगों के पास वहां तिरंगे भी नहीं थे. मैंने लोगों से पूछा कि तिरंगा कैसे फहराते हैं तो उन्होंने बताया कि तिरंगा वहां मिलता ही नहीं है। 15 अगस्त को बाजारों में वहां तिरंगा नहीं मिलता था।

जोशी कहते हैं कि जब हम वहां पहुंचे तो सवाल खड़ा हुआ कि कितने लोग लाल चौक जाएंगे, क्योंकि हमारे साथ एक लाख लोगों का समूह था। राज्यपाल ने कहा कि इतने लोगों का जाना संभव नहीं है। दूसरी बात ये थी कि वहां आतंकवाद की घटनाएं बहुत हो रही थीं तो यह खतरनाक हो सकता था। साथ ही आतंकियों ने हमले की धमकी दी हुई थी। लाल चौक जंग का मैदान बना हुआ था।

इसके बाद तय हुआ कि मेरे साथ 20 के करीब लोग जा सकते हैं। फिर एक कार्गो जहाज किराए पर लिया गया और 17 से 18 लोग उसमें बैठ कर गए। इसमें नरेंद्र मोदी भी थे। मोदी इस यात्रा के व्यवस्थापक थे। इसके बाद सभी 26 जनवरी 1992 की सुबह लाल चौक पर पहुंचते हैं। आतंकी रॉकेट से फायर कर रहे थे। पांच से दस फीट की दूरी पर गोलियां चल रही थीं। इनके अलावा वो हमें गालियां भी दे रहे थे, लेकिन हम लोगों ने उन्हें सिर्फ राजनीतिक उत्तर ही दिए।

उस दिन यह कहा जा रहा था कि कश्मीर के बिना पाकिस्तान अधूरा है तो हमने अटल बिहारी वाजपेयी की बात दोहराई और कहा कि फिर पाकिस्तान के बिना हिंदुस्तान अधूरा है। इस सब के बीच हम लोग वहां पर 15 मिनट में तिरंगा फहराते हैं। इसके बाद सभी को बुलेटप्रूफ कार में बैठाकर वहां से वापस भेज दिया जाता है।

  ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समापन पर राहुल गांधी पार्टी दफ्तर पर तिरंगा फहराएंगे, लेकिन उससे महज 1 किमी दूर लाल चौक पर क्यों नहीं…

राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई कहते हैं कि मुरली मनोहर जोशी ने 1991 में जब एकता यात्रा निकाली थी तो उस वक्त कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था। हालात ऐसे थे कि लाल चौक पर कोई तिरंगा फहराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। यानी एक प्रकार से वहां पर आतंकियों का कब्जा था। ऐसे में उन्होंने आतंकियों को चुनौती देते हुए तिरंगा फहराया।

किदवई बताते हैं कि श्रीनगर के लाल चौक में अब 24 घंटे तिरंगा फहराया हुआ होता है। देखा जाए तो भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी कई जगहों पर तिरंगा लिए दिखाई देते हैं, लेकिन उन्होंने तिरंगा कहीं पर फहराया नहीं। ऐसे में यदि वे लाल चौक पर झंडा फहराते हैं तो लगेगा कि वह जोशी का अनुसरण कर रहे हैं।

साथ ही कश्मीर में यह संदेश जाएगा कि यहां के लोग भारत के दूसरे राज्यों से अलग हैं और उनमें राष्ट्र के प्रति समर्पण में कमी है। इसकी वजह से झंडा फहराया जा रहा है। इसलिए राहुल ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहते हैं।

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