Friday, April 19

वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नागदेव की बेबाक कलम, सीधे रस्ते की टेढ़ी चाल,,,,ये कैसा चक्रव्यूह है भाई 58 वापस अब 76 की डिमाण्ड बताई 58 को लौटाया तो 76 का बिल पास कर दिया

जवाहर नागदेव, वरिष्ठ पत्रकार,लेखक,चिंतक,विश्लेषक           mo 9522170700

सीधे रस्ते की टेढ़ी चाल                            ये कैसा चक्रव्यूह है भाई

58 वापस अब 76 की डिमाण्ड बताई
58 को लौटाया तो 76 का बिल पास कर दिया। ये कैसा आश्चर्यजनक मामला है। एक बार सरकार ने आरक्षण को 58 प्रतिशत कर दिया था तो कोर्ट ने उसे नकार दिया था। क्योंकि 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिये ये संविधान में स्पष्ट लिखा है। ऐसी स्थिति में सरकार 76 प्रतिशत कर दे तो क्या संविधान विरूद्ध नहीं होगा और क्या ऐसे में कोर्ट फिर से रिजेक्ट नही ंकर देगी ? सरकार ने विपक्ष सहित एक सुर में आरक्षण को 76 का आंकड़ा टच करा दिया। यानि कांग्रेस और भाजपा खुद को इस वर्ग का हितैषी बताते हुए इस बात पर एक मत हो गये और बिल पास कर दिया। जब ये बिल राज्यपाल के पास गया तो उन्होंने रोक लगा दी और राष्ट्रपति के पास भेज दिया। इस रोक के लिये कांग्रेसी सरकार भाजपा को कोस रही है। ईधर साहू समाज के अध्यक्ष टहलराम साहू ने राज्यपाल से नाराजागी के कारण उनके कार्यक्रम के बहिष्कार की घोषणा कर दी।
भाजपा ने पिछली बार बस्तर की 12 और सरगुजा की 14 सीटों में से एक भी आरक्षित सीट नहीं जीती है। एक सीट भीमा मण्डावी की एक सीट थी जो उनके निधन के बाद उपचुनाव में कांग्रेस के पास चली गयी। जाहिर है भाजपा का तो आरक्षण का वि रोध करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। कुल मिलाकर सारे राजनेता जानते हैं कि आरक्षण लागू होने की संभावना नगण्य है फिर भी सारे इसके समर्थन में खड़े हैं।

सरकार कोई भी हो, क्रूर मनमानी जारी है
बिन पैसे के अफसर से,काम कराना भारी है      चाणक्य ने कहा था कि ‘पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति यदि संतुष्ट हो जाए तो सब कुछ नष्ट हो जाए’। मोटे तौर पर ये कहा जा सकता है कि बुद्धिजीवी मौन हो जाएगा तो क्रांति की संभावना समाप्त हो जाएगी परिवर्तन की संभावना नहीं रह जाएगी। इसलिये अपना उत्तरदायित्व समझकर इस वर्ग के लोगों को सक्रिय रहना चाहिये। इस काम का कभी पैसा मिलता है तो कभी मुफ्त किया जाता है। दरअसल लेखक भावुक होता है और भावनाओं मंे रहने वाला व्यक्ति स्वातः सुखाय ये काम करता है। कभी ये लेख किसी की प्रेरणा बन जाते हैं तो कभी इसकी कोई एक लाईन ऐसा क्लिक कर जाती है कि इससे कोई बड़ा निर्णय लेने में सहूलियत हो जाती है। इंसान पढ़ता रहे, पढ़ता रहे तो एक दिन वो कोई ठोस बड़ा निर्णय लेने लायक हो जाता है। ये निर्णय सकारात्मक भी हो सकता है नकारात्मक भी, ये इस बात पर निर्भर करता है कि वो किस तरह के पठन में संलग्न है। प्रायः अपराधी किसी रचना से प्रेरित होकर ही अपराध करते हैं ये सत्य है। इसीलिये सज्जन लोग सत्साहित्य की ओर समाज को प्रेरित करने का प्रयास करते हैं।

बहरहाल… पढ़े-लिखे बेहद समझदार सरकारी अधिकारी इतने समझदार हैं कि जनता को तो रूलाते ही हैं। कोर्ट को भी घुमा देते हैं। यहां तक कि माननीय उच्च न्यायालय से जब भी उन्हें किसी काम के लिये इन्स्ट्रक्शन दिये जाते हैं, ये भरपूर लापरवाही बरतते हैं और काम को आदेशानुसार नहीं करते। फिर कोर्ट से चेतावनी दी जाती है अवमानना की कार्यवाही की। तब कोई मजबूरी बताकर माफी मांगकर आसानी से बच जाते हैं। कोर्ट को भी इनकी ढीठता का अहसास होता है लेकिन क्या करे सिस्टम ऐसा ही है। ऐसे मामले छत्तीसगढ़ में आम हैं। सिस्टम में सलाम है सिर्फ पैसे को…
मिर्च-मसाला

आजम का बदनसीब बेटा – ‘बड़ा बदनसीब हूं, एक सच को साबित नही ंकर सका, मेरा सच कमजोर था हार गया, झूठ ताकतवर था इसलिये जीत गया’ रामपुर उपचुनाव मे आजम खान के बेटे अब्दुल्ला आजम की समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की हार के बाद पहली बार एक निरीह प्रतिक्रिया सामने आई है। जिस पर लोग तरस नहीं खा रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं। यही वे लोग हैं जिन्होंने हर तरह की ‘अति’ मचाई थी। यही वो आजम खान हैं जिनकी भैंस ढूंढने के लिये पूरा थाना लग गया था। यही वो लोग हैं जिन्होंने अधिकारियांे को जूते की नोक पर रखा था। यही वो लोग हैं जिन्हांेने सैकड़ों किसानों की जमीन हड़प् कर अपना साम्राज्य खड़ा किया। इसमें कुछ साबित हो पाएंगे, कुछ नहीं। और अन्त में यही वो शख्स है जिसने भारत माता को डायन कहा था।
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एक खुशी,एक आशंका
म्दद की जरूरत हर किसी को पड़ती है समाज में। निश्चित रूप् से सरकार का उत्तरदायित्व है कि वो अपने हर नागरिक का खयाल रखे। इसी कड़ी में छत्तीसगढ़ सरकार ने बुजुर्गों, दिव्यांगों और ट्रांस जेण्डर की मदद के लिये समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत एक हेल्पलाईन नंबर जारी किया है 155326। इस नंबर पर काल करके किसी भी तरह की मदद ली जा सकती है। जिस तरह की मदद चाहिये इस नंबर से आग बढ़ाई जा सकती है और फोन करने वाले को तत्काल उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा। ये एक खुशी की बात है लेकिन दूसरी ओर एक आशंका भी उत्पन्न होती है कि जिस तरह 1100 में मदद मांगने पर झूठ बोला जाता है। काम नहीं करके भी ‘हो गया’ कह दिया जाता है वैसा ही हश्र इसका भी न हो जाए। जिसकी आशंका अधिक है।

-‘बड़ा’ होने की कीमत

‘बड़ा’ बनना यानि बड़ा फण्ड। बड़े होने की और कोई परिभाषा हमारे समाज में नहीं है। जिसके पास जितना अधिक माल, वो उतना बड़ा आदमी। बस, और कुछ नहीं। चरित्र, जनसेवा या और कोई काबिलियत किसी का मान नहीं है। बॉर्डर पे जान पे खेलने वाला सिपाही हो या समाज में आम आदमी के लिये अपना सर्वस्व लगा देने वाला समाजसेवी, सबको एक ही दृष्टि से देखा जाता है। सम्मान केवल पैसे वाले का होता है। एक बार मजाक-मजाक में फूहड़ कॉमेडी रस्सी के सहारे नाम कमाने वाले कपिल शर्मा ने अमिताभ बच्चन कोे अमिताभ बच्चन होने के नुकसान बताए कि ‘आप अमिताभ बच्चन के साथ फोटो नहीं खिंचवा सकते, आप उस फोटो को सोशल साईड पर नहीं डाल सकते। आप अमिताभ की किसी फिल्म में थियेटर में सीटी नहीं बजा सकते, आप सड़क किनारे खड़े होकर पानीपुरी नहीं खा सकते। आदि…
इसके अलावा एक बात और है कि बड़ा आदमी बड़ा बनने के चक्कर में अपना सर्वस्व लगा देता है। अपना सारा समय और भावनाएं केवल बड़ा बनने में खर्च कर देता है। वो एक बार अपने बच्चे को या पोते को लेकर भीड़ भरे गार्डन में गार्डन में दौड़ा-दौड़ी नहीं खेल सकता। बच्चे की बहती नाक मुंह तक आए और बच्चा उसे चाट न जाएं तो दौडकर उस पर गुस्सा जताकर रूमाल से उसे पोंछ नहीं सकता। उसके नाती-पोते सार्वजनिक स्थल पर किसी खिलौने के लिये रोते-जिद करते देखने में जो सुख मिलता है वो उससे वंचित रहता है।

कुछ मिनट बचाने की कीमत

हमारे कॉम्प्लेक्स में एक बेहद सुलझी हुई युवती रहती है। मेरे बेटों के उम्र की वो बच्ची बेहद अमीर और इंटेलिजेंट भी है। उसके पास महंगी दो गाड़ियां भी हैं। वो आत्मविश्वास से भरपूर अकेले ही सैकड़ों किलोमीटर दूर गाड़ी से आना-जाना कर लेती है। मैं उसे बहुत पसंद करता हूं और उसकी तारीफ करता हूं। बस एक बात है उसके अंदर वो मुझे बेहद खलती है। इस तरक्की की कीमत उसे ये करके चुकानी पड़ती है कि वो हमेशा केवल काली टीशर्ट और काली जीन्स पहने रहती है। जानते हैं क्यों, सिर्फ इसलिये कि अलग-अलग तरह के कपड़े पहनने के लिये कुछ मिनट उन्हें सलेक्ट करने में नष्ट हो जाते हैं और समय वो नष्ट करना नहीं चाहती। ये बात मुझे कचोटती है। मेरे विचार से जीवन जीने के लिये पैसा जरूरी है, न कि पैसा कमाने के लिये जीना। मकसद सुखपूर्वक जीने के लिये पैसा कमाना है न कि पैसा कमाने के लिये जीवन को नीरस बना देना। इसमें कोई शक नहीं है कि यदि वो रंगबिरंगे सलवार सूट, कभी साड़ी, कभी रंगीन टीशर्ट, कभी रंगीन मफलर, कभी ठण्ड मंे रंगीन जैकेट, कोट पहने और खुद को आईने मंे निहारे तो उसे सुखद अनुभूति होगी। जब भी आवश्यकता से थोड़ा अधिक पैसा हो जाए तो अनावश्यक भागदौड़ छोड़ देनी चाहिये। भावनाआंे को अहसासों को जीवन मे यथोचित स्थान मिलना चाहिये। जीवन में रस होना चाहिये। सरस जीवन जीने के बहुत से फैक्टर हैं लेकिन सबसे अधिक रस आमतौर पर अपने बच्चों से अपने परिवार से आता है।

पैसों के लिये दूर बच्चे

मेरे अत्यंत निकट के मेरे दो दोस्त हैं। दोनों अलग-अलग शहरों में रहते हैं और एक दूसरे को जानते भी नहीं। एक सरकारी नौकरी में है दूसरा बिजनेस में। मगर उन दोनों में एक समानता है। उन दोनों के लड़के पूना में सर्विस करते हैं और अच्छा पैसा कमा रहे हैं। खर्चे से लगभग दो-तीन गुना। उनमें से एक की बहु भी कमाती है। कुछ ही सालों मे उनके पास करोड़ों का फण्ड हो जाएगा। मैं कभी सोचता हूं कि मेरे मित्र को कभी रात को कोई चिन्ता हुई और सोच में डूबा सोफे पर जा बैठा तो उसे पक्का बेटे की कमी खलेगी। सुबह उठते समय उसे लगेेगा कि पोता/पोती आकर पेट पर बैठकर उसकी नींद खराब करते तो उसे कितना सुख मिलता। रात को देर तक बच्चे जागते और उसे भी सोने नहीं देते तो थकान के कारण वो गुस्सा तो करता मगर अंदर जो अनुभूति होती उसका कोई मोल नहीं।
उसी तरह उसके बाहर रहने वाले बच्चें किसी परेशानी में होने पर पिता का कंधा जरूर ढूंढते होंगे। कुल मिलाकर बच्चों को पैसों की खातिर…. सॉरी अधिक पैसों के लालच में… ये कहना उचित होगा तो अधिक पैसों के लालच में खुद से दूर रखना उचित नहीं है। आराम से जीने के लिये पर्याप्त पैसा अपने घर पर रहकर कमाया जा सकता है। और फिर प्रारब्ध मंे जितना है उतना मेहनत करके घर पर भी कमाया जा सकता है। फिर बेहिसाब पैसा कमाने के लिये जीवन के परम् सुख से, विलक्षण कुदरती अहसासांे से वंचित रहना कहां की समझदारी है ?

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