अनमोल – अमोल पालेकर ( प्रस्तुति रवि के ग़ुरूबक्षाणी )

अमोल पालेकर के बारे में सोचते ही ‘गोलमाल’ याद आती है. छोटा कुर्ता, राम श्याम और नकली मूंछें. फिर वो डायलॉग कि ‘कबीर को पढ़ने-पढ़ाने के लिए पूरा जीवन ही कम है, पर मैं कोशिश करूंगा कि साढ़े सात बजे तक खत्म कर दूं.’ अमोल पालेकर के चाहने वाले ये मानते हैं कि जैसी सौम्यता उनके ज्यादातर किरदारों में रही, वैसी ही उनके व्यक्तित्व में थी और इसीलिए उन्होंने बहुत चमक-दमक नहीं चाही.

वो हमारी तरह ही किराये का कमरा खोजता, कॉलेज में लड़कियों को चिट्ठी लिखता, बस की कतार में खड़ी लड़की को चुपके-चुपके निहारता, बैचलर लॉज में रहते हुए पानी का इंतजार करता, क्लर्क की नौकरी करता, कॉफी हाउस में लड़की के साथ बैठा रहता, अपने दोस्तों के साथ दुनिया जहान की बातें करता, बीच-बीच में अपने बाल को कंघी करता, रुमाल से मुंह पोछता.

वो कभी किसी दूसरी दुनिया का सुपरमैन नहीं लगता. झोला लटकाए, बजाज स्कूटर को किक मारते, लड़की के साथ इंडिया गेट घूमते, सिनेमा जाते, पार्क में बैठ बातें करते, कभी गांव में बस से उतरते, कभी रेलवे स्टेशन से घर जाने के लिये तांगे की सवारी करते हुए वो हमेशा अपने बीच का ही कोई आदमी लगता.

मानो हम में से ही कोई एक उठकर उस बड़े से रुपहले पर्दे पर चला गया हो. उसकी फिल्मों को देखते हुए लगता जैसे हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी को ही किसी ने बड़े पर्दे पर उठाकर रख दिया हो.

वो रियलिज्म के इतना करीब था कि उसकी बेरोजगारी, सिगरेट के लिये खत्म हो गए पैसे, सेकेंड हैंड बाइक, किसी अंग्रेजी रेस्तरां में चम्मच से न खा पाने की मजबूरी, उसके सुख-दुख, मूंछों के बीच अचानक से फूंट पड़ने वाली हंसी सबकुछ अपना ही हिस्सा लगती.

उसका बैलबटन फुलपैंट, स्लीव शर्ट, पतली मूंछ, बड़े ग्लास वाला चश्मा, कानों तक लंबे बाल ठीक वैसे ही थे जो हमने अपने घर के एलबम में पापा-मामा-चाचा की जवानी की तस्वीरों में देख रखे थे.

गोलमाल में अमोल पालेकर
उसकी प्रेमिकाएं किसी टिपिकल हिन्दी फिल्मों की तरह अचानक से नाचते-गाते नहीं मिलती, बल्कि वो उसके आसपास ही पड़ोसी के घर में, मोहल्ले में या कॉलेज- ऑफिस में साथ-साथ काम करती मिलती. हमारी तरह उसका दिल भी लड़की को प्रपोज़ करना तो दूर उससे बात तक करने में धक-धक करने लगता. महीनों-सालों वो सिर्फ लड़की को निहारता रह जाता. उसके बगल वाली सीट पर बैठकर ही खुश होता रह जाता. लड़की के समय पूछ लेने भर से न जाने कितने ख्यालों को मन में उकेर बैठता.

वो उन फिल्मी हीरो की तरह नहीं था, जो अकेले ही न जाने कितनों को निपटा देते. वो कोई महानायक, कोई काल्पनिक एंग्री यंग मैन नही था. वो तो हमारे चाचा जी की तरह था, हमारी तरह था. अपने बॉस के सामने हाथ जोड़े, ऑफिस-कॉलेज, आस-पड़ोस की आंटियों के सामने दुबका सहमा विनम्र छवि बनाए रखने वाला.

हम जब उसे पर्दे पर देखते हैं तो सिर्फ उसे नहीं देख रहे होते बल्कि अपने दब्बूपन, आम आदमी होने की लघुता को भी नाप रहे होते है. भारी भरकम सुपरहीरो वाली फीलिंग से इतर हम अपने दब्बूपन को सिनेमैटिक पोएट्री में पिरोए जाने का सुख महसूस कर रहे होते हैं. खुद की साधारण कहानी भी स्पेशल लगने लगती है.

साधारण होने की लघुता को बड़े रंगीन रुपहले पर्दे पर करीने से सजाने वाले उस नायक ने कभी महानायक बनना न चाहा.
( प्रस्तुति रवि के ग़ुरूबक्षाणी )

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