वरिष्ठ पत्रकार एडव्होकेट राममूरत शुक्ला की ये पंक्तियां इस वक्त एकदम सही मालूम पड़ती हैं।
जो माहौल दिख रहा है उससे ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मजबूत हैं। ओपिनियन पोल कांग्रेेस के कुछ आगे होने के संकेत दे रहे हैं। हालांकि पहले जितने भी सर्वे हुए हैं सभी में कांग्रेस को आगे बताया गया था।
अब जो सर्वे हो रहे हैं उनमें सर्वे करने वालों की खुद की रूचि भी शामिल है। जो जिसका समर्थक वो उसकी जीत बताता है। लेकिन फिर भी इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि पहले हवा कांग्रेस की थी लेकिन बस्तर की बारा सीटों पर चुनाव के बाद हवा का रूख कुछ-कुछ भाजपा की तरफ भी होने लगा हैै।
ये मानसिकता आज भी कायम है।
अब प्रदेश भर में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि सरकार भाजपा की बनेगी चाहे कम सीटों के अंतर से ही बने।
सच्चाई के करीब का एक मजाक ये भी चल रहा है कि सीटें किसी की भी अधिक हों, अमित शाह के एक्टिव होते ही सरकार भाजपा की बनेगी। वैसे ये पूरा मजाक भी नहीं है।
क्योंकि यदि कुछ ही सीटों से भाजपा पीछे रही तो ऐसी संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसी संभावना को बल टीएस सिंहदेव उपमुख्यमंत्री के बयानो से भी मिलता है।
वोट भाजपा को देंगे
लेकिन सरकार कांग्रेस की बनेगी
लेकिन आम आदमी बड़ा चतुर होता जा रहा है। उसके पास सबके लिये एक ही जवाब है ‘जी हुजूर’। वो जल्दी से खुलता नहीं। इसलिये कई ऐसे सर्वे भी गलत साबित हो जाते हैं।
इस घटना का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है संदर्भवश पुनः बता दूं कि एक मित्र ने जो राजनीतिज्ञ नहीं, पत्रकार भी नहीं है, अपना अनुभव बताया कि ‘दस लोगों से पूछो कि किसकी सरकार बनेगी तो उनमें से आठ कहेंगे ‘कांग्रेस की’। फिर पूछो ‘किसको वोट दोगे’ तो उनमें से सात कहेंगे ‘भाजपा को’।
अब जब दस में से सात भाजपा का नाम ले रहे हैं तो फिर सरकार कांग्रेस की कैसे बनेगी ? यानि बड़ी असमंजस की स्थिति है। यदि ये सही है तो ये कहा जा सकता है कि उपरी तौर पर सारे लोग कांग्रेस का नाम ले रहे हैं, पर पक्षधर भाजपा के हैें।
वक्त रहते चुस्त हो गयी भाजपा
लेकिन क्या दस प्रतिशत वोटों का गड्ढा पाट लेगी
15 साल बाद 15 पर सिमटी भाजपा ने कोई खतरा लेना मुनासिब नहीं समझा। भाजपा को ये बात समझ में आ गयी है कि द्वन्द इकतरफा नहीं है। बल्कि ये भी समझ में आ गया है कि स्थिति कमजोर है। यही कारण है कि रमनसिंह को नकारते, किनारे करते फिर से मुख्य धारा में लाना पड़ा।
प्रारंभ में ऐसा लगा कि डाॅ रमनसिंह के बदले किसी और को नेतृत्व दिया जाएगा लेकिन धीरे-धीरे ये साफ हो गया कि ये खतरनाक हो सकता है। नुकसान दायक हो सकता है। इसलिये पुराने योद्धाओं को ही कमान सौंप दी। कहा जा सकता है कि वक्त रहते चेत गयी भाजपा और दिलोजान से फिर से भिड़ने के लिये खड़ी हो गयी।
पिछले 2018 के चुनाव में ऐसा पहली बार हुआ कि जीतने वाली कांग्रेस हारने वाली भाजपा से दस प्रतिशत अधिक वोट पाकर जीती। नहीं तो हमेशा ये अंतर मात्र एक-दो प्रतिशत का ही रहा है। यानि हर चुनाव में भाजपा मामूली अंतर से आगे रही थी।
2018 में कांग्रेस ने नया कीर्तिमान बनाया और दस प्रतिशत अधिक मत पाकर 68 सीटें जीत लीें और भाजपा को 15 सीट पर ढकेल दिया।
बाद के हर उपचुनाव में भी कांग्रेस ने अपना डंका बजाया। पर इस बार ये अंतर बहुत ही मामूली होगा इसकी संभावना है। फिर भी कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा दस प्रतिशत का गड्ढा पाट ले।
हर स्थिति में तैयार भाजपा कार्यकर्ता
पार्टियों को छकाते हर बार वोटर
पिछला एक साल यदि छोड़ दिया जाए तो उससे पहले के चार सालों में भाजपा ने विपक्ष मे रहते कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया जिससे वह पुनस्र्थापित हो सके। सामान्य ढर्रे में काम करती रही। जबकि कांग्रेसी मुख्यमंत्री छक्के पे छक्का मारते रहे। नाम कमाते रहे। सियासी सफर मे मजंबूत होते रहे।
लेकिन 17 नवंबर को दूसरे दौर की 70 सीटों के चुनाव आते तक परिस्थितियां बदल गयीं। इस समय भाजपा कांग्रेस से पीछे है नहीं कहा जा सकता। भाजपा ने पूरा जोर लगाया है और सारे सीनियर लीडर्स ने अपने अनुभव से सारे उपाय करके भाजपा एक बेहतरीन टक्कर की स्थिति में ला खड़ा किया।
चतुर, सयाना वोटर प्रायः पार्टियों को छकाने का काम करने लगा है। सबका अपना बनता है पर ठप्पा लगाते समय चैंकाता है।
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जवाहर नागदेव, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, चिन्तक, विश्लेषक
मोबा. 9522170700
‘बिना छेड़छाड़ के लेख का प्रकाशन किया जा सकता है’
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