Friday, March 29

Tag: *न्यायपालिका के अपशकुनी बोल : वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में. इनने और घुमाव ला दिया गलियारे में* *(आलेख : बादल सरोज)*

*न्यायपालिका के अपशकुनी बोल : वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में. इनने और घुमाव ला दिया गलियारे में* *(आलेख : बादल सरोज)*
खास खबर, देश-विदेश, लेख-आलेख

*न्यायपालिका के अपशकुनी बोल : वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में. इनने और घुमाव ला दिया गलियारे में* *(आलेख : बादल सरोज)*

भारत दुनिया के उन विरले देशों में से एक है, जिसमें रहने वाली आबादी का अपने-अपने समय की न्याय प्रणालियों में अगाध और अटूट भरोसा रहा है। जब से इतिहास शुरू हुआ, तब से कबीलाई समाज से लेकर, राजतंत्र से होते हुए मौजूदा संवैधानिक लोकतंत्र तक यह भरोसा बना रहा। हर समय न्याय करने की जो-जो प्रणालियाँ रहीं, उनकी भले कितनी भी वर्गीय और वर्णाश्रमी सीमाएं रहीं, लोग इनसे उम्मीद लगाए रहे। कहानियों, लोककथाओं में चिड़ियाएं तक तत्कालीन निज़ाम से इंसाफ मांगने पहुँची और कहानियों में उन्हें इंसाफ मिला भी। साहित्य ने इन सबको गौरवान्वित करते हुए समाज की चेतना में बिठाया -- मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी पंच परमेश्वर ने इंसाफ करना निजी दोस्ती और राग-द्वेष से ऊपर उठकर किये जाने वाला काम स्थापित किया। अटपटे से अटपटे फैसलों, विवादित और पक्षपाती निर्णयों और न्याय की आसंदी पर बैठे व्यक्तियों के बारे में गलत से गलत स...