अष्टावक्र गीता के पंचम अध्याय का व्याख्यान करते हुए स्वामी श्री ने बताया की जहाँ श्रीमद भागवत गीता मे संसार के समस्त साधक एवं भक्त अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त कर सकते हैं, वहीं अष्टावक्र गीता जनक जैसे उच्च कोटि के साधक के लिये बोली गई है, जो केवल मोक्ष प्राप्त करना चाहता है और उस से कम मे समझौता नहीं करेगा। जनक विदेह हैं और ज्ञान को प्राप्त हो चुके हैं। वे आत्मस्त् हैं और त्याग की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं। परंतु अष्टावक्र जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि आप तभी त्याग सकते हैं जब आपके पास कुछ हो। व्यक्ति संसार मे ना कुछ लेकर आता है, और ना ही यहाँ से कुछ लेकर जाता है।
तो फिर त्याग की इच्छा कैसी? अष्टावक्र की वाणी के माध्यम से स्वामी जी ने बताया कि
संसार या वस्तुएँ त्यागना भी एक देहाभिमान है। उन्होंने कहा कि सुख दुख अंदर की भावना है। ना किसी को बाहर से सुख दिया जा सकता है ना ही दुख। आत्मा तो वैसे भी सुख-दुख दोनो से निर्लिप्त है। ये विशुद्ध ज्ञान केवल जीवंत सद्गुरु ही अपने शिष्यों मे हस्तांत्रित कर सकता है। इसलिए जीवंत गुरु के समीप रह कर साधना, सुमिरण, सेवा और दान करने का विशेष महत्व है।
सांसारिक सुख केवल आंतरिक सुख का एक प्रतिबिंब है परंतु हम बाहिय सुख के पीछे भागते हैं। उसी को सत्य मान लेते हैं। जीवंत समय के सद्गुरु हमें दीक्षा मे वह विधि प्रदान करते हैं जिससे हमारे अंदर आनंद की स्तिथि सदा बनी रहे। स्वामी जी ने बताया की संसार की भाग-दौड़ से हारा व्यक्ति आश्रम आकर सेवा और सुमिरण कर पुनः उर्जांवित हो जाता है। इसलिए आश्रम निर्माण मे सहयोग देने वाले अक्षय पुण्य के भागी बन जाते हैं।