‘‘और याद रखिए, हमारा भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार कौन है, आप को किसी को याद रखने की जरूरत नहीं है। सिर्फ कमल का फूल याद रखिए। मैं आप के पास कमल का फूल लेकर आया हूं…कमल का फूल पर आप का हरेक वोट सीधे मोदी के खाते में आशीर्वाद बनकर आएगा।’’
नरेंद्र मोदी का यह डॉयलाग, जो उन्होंने हिमाचल प्रदेश में सोलन में भाजपा की एक चुनाव रैली को संबोधित करते हुए बोला, सूत्र रूप में उस विकृत केंद्रीयकरण को उजागर कर देता है, जो करीब साढ़े आठ साल के अपने राज में नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनीति के विकेंद्रीकृत, जनतांत्रिक स्वभाव की जगह पर थोप दिया है।
इस एक डॉयलाग में प्रधानमंत्री मोदी कम से कम तीन पहलुओं से या तीन स्तरों पर, अपने राज में हुए इस अति-केंद्रीयकरण को स्वर देते हैं। बेशक, इस केंद्रीयकरण का पहला स्तर तो, जिसे शुरू से ही इंगित भी किया जाता रहा है, विकेंद्रीकृत प्रतिनिधित्व पर आधारित संसदीय प्रणाली की जगह पर, देश पर व्यावहारिक मानों में राष्ट्रपति-प्रणालीनुमा व्यवस्था थोपे जाने का ही है, जिसके केंद्र में एक की जगह है — नरेंद्र मोदी। ‘‘आप का हरेक वोट सीधे मोदी के खाते में…आएगा’’ का आश्वासन, इस केंद्रीयकरण को बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त कर देता है। बेशक, इसे ‘‘नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता’’ का साक्ष्य बनाकर चलाने की कोशिशेंं की जाती हैं। लेकिन, कथित लोकप्रियता की दलील, इस तरह से प्रधानमंत्री द्वारा जिस तरह के विकृत-केंद्रीकरण को पुख्ता किया जाता है, उसकी सचाई को नकार नहीं सकती है।
हां! अगर इसके पीछे लोकप्रियता की बात स्वीकार भी कर ली जाए, तो भी यह इसी का सबूत है कि प्रधानमंत्री अपनी कथित लोकप्रियता का इस्तेमाल, इस प्रकार के विकृत केंद्रीयकरण को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। जाहिर है कि यह भारतीय जनतंत्र के स्वभाव के ही बदले जाने की ओर इशारा करता है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी कोई इस देश में सत्ता में आए पहले लोकप्रिय नेता नहीं हैं। स्वतंत्र भारत मेें प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले कम-से-कम दो शुरूआती नेता तो अवश्य ही अपने समय में जनसमर्थन के मामले में नरेंद्र मोदी से सवाए ही रहे थे, कम नहीं। नेहरू के नेतृत्व में लड़े गए विभिन्न आम चुनावों में उनकी पार्टी के मत फीसद और 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी और यहां तक कि 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में उनकी पार्टी को मिले मत फीसद को, मोटे तौर पर उनकी लोकप्रियता का पैमाना मानकर, मोदी के नेतृत्व में भाजपा के 2014 तथा 2019 के मत फीसद से तुलना कर के हम, लोकप्रियता का एक मोटा तुलनात्मक ग्राफ तो बना ही सकते हैं।
इसके बावजूद, अगर इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने ‘आप का हरेक वोट सीधे मेरे खाते में’ का आश्वासन देने की जरूरत नहीं समझी थी, तो इसलिए नहीं कि उनके नाम के जुडऩे से उनकी पार्टी के उम्मीदवार की ताकत नहीं बढ़ती थी। ऐसा आश्वासन देने की जरूरत उन्हें इसलिए नहीं पड़ी होगी कि वे भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था की विकेंद्रीकृत प्रकृति की कद्र करते थे तथा उसे विकसित व संरक्षित करना चाहते थे। इसीलिए, स्वतंत्रता के बाद के पहले कई दशकों में इसकी एक विवेकपूर्ण कन्वेंशन जैसी स्वीकृत रही थी कि प्रधानमंत्री तथा केंद्र सरकार के मंत्री, राज्य या उससे निचले स्तर के चुनावों में बहुत ज्यादा नहीं उलझेंगे और विपक्ष के खिलाफ सीधे तलवारें नहीं भांजेंगे। जाहिर है कि ‘हरेक चुनाव मोदी की हार-जीत का चुनाव है’ के मौजूदा केंद्रीयकरण में, ऐसी तमाम विवेकपूर्ण जनतांत्रिक कन्वेंशनों को ही बुहारकर दरवाजे से बाहर नहीं कर दिया गया है, ‘हरेक वोट मोदी के लिए’ के दावे के जरिए, संघीय व्यवस्था समेत समूचे विकेंद्रीकृत ढांचे को ही, ज्यादा से ज्यादा एक नुमाइशी चीज बनाकर रख दिया गया है, जिसका कोई उपयोग ही नहीं है। जाहिर है कि ‘‘एक देश, एक नेता’’ के मॉडल के इस केंद्रीकरण के पीछे, विकेंद्रीयकरण के विभिन्न स्तरों का ही नहीं, उन स्तरों पर सक्रिय अपनी ही पार्टी के नेताओं का बेदखल किया जाना भी काम कर रहा है, लेकिन इसकी चर्चा हम जरा आगे करेंगे।
इस मोदी छाप केंद्रीयकरण के एक और स्तर की भी कुछ न कुछ चर्चा अवश्य होती रही है, जिसका सार है भारतीय संघीय व्यवस्था के दूसरे प्रमुख स्तंभ, राज्य का कमजोर या अधिकारहीन किया जाना। सोलन के उसी चुनावी भाषण का एक और डॉयलाग, सूत्र रूप में मोदी राज में बड़ी तेजी से हो रहे इस पहलू से केंद्रीयकरण को सामने ले आता है। प्रधानमंत्री मोदी का डॉयलाग था: ‘‘दिल्ली में मोदी हो तो यहां भी मोदी को मजबूती (यानी सत्ता) मिलनी चाहिए कि नहीं मिलनी चाहिए।’’ केंद्र और राज्य, संघीय व्यवस्था के दो प्रमुख स्तरों पर सत्ता का इस तरह गड्डमड्ड और एकीकृत कर दिया जाना भी, मोदी राज में हो रहे केंद्रीयकरण की ही विशेषता है। बेशक, पहले भी भारत में संघीय व्यवस्था के राज्यों के स्तंभ को, उत्तरोत्तर कमजोर ही किया जाता रहा था। इसके अतिवादी रूप की शुरूआत, 1957 में केरल में आयी पहली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने से ही हो गयी थी और उसके बाद, खासतौर पर इंदिरा गांधी के राज में खुद सत्ताधारी पार्टी समेत, विभिन्न पार्टियों की कितनी ही सरकारों को मनमाने तरीके से बर्खास्त किया गया था। इसके बावजूद, ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ के जनता के लिए ’स्वाभाविक रूप से फायदेमंद’ होने का दावा, मोदी राज की केंद्रीयकरण की मुहिम का ऐसा ‘अनोखा योगदान’ है, जो संघीयता के तर्क से ठीक उल्टे सिद्घांत को स्थापित करता है।
बहरहाल, मोदी राज में जारी अति-केंद्रीयकरण का तीसरा पहलू, जिसकी चर्चा कम ही हुई है, ‘एक देश, एक नेता’ और ‘एक देश, एक सरकार’ के केंद्रीयकरण को, खुद मोदी की अपनी पार्टी में भी दोहराता नजर आता है। इस प्रक्रिया में, नरेंद्र मोदी ने खुद को सत्ताधारी पार्टी का एकछत्र नेता या सुप्रीमो तो बना ही लिया है, दूसरे सिरे पर अपनी ही पार्टी के नेताओं को, पूरी तरह से अधिकारहीन या बेमानी भी बना दिया है। विधानसभाई चुनाव के लिए हुई सोलन की सभा में जब नरेंद्र मोदी बिना किसी संकोच के ‘‘आप का हरेक वोट सीधे मोदी के खाते में’’ का एलान करते हैं, तो वह सिर्फ अपनी सत्ता से अलग विधानसभाई सीट, विधानसभा तथा राज्य सरकार के निरर्थक होने का ही एलान नहीं कर रहे होते हैं, सीधे अपने खाते में वोट मांगकर, सत्ताधारी पार्टी की भी अर्थहीनता को स्थापित कर रहे होते हैें। और रही बात अपनी ही पार्टी द्वारा चुनाव में खड़े किए गए उम्मीदवारों की, तो नरेंद्र मोदी इसकी तो जरूरत तक नहीं समझते हैं कि उनके समर्थक, उनकी पार्टी के उम्मीदवार का ‘‘नाम’’ तक याद रखें। उनका स्पष्ट संदेश है — सिर्फ और ‘‘सिर्फ कमल का फूल याद रखिए’’ और वह भी इसलिए कि, ‘‘मैं आप के पास कमल का फूल लाया हूं!’’ सोलन की सभा में जब मोदी मुंंह खोलकर अपना विराट रूप दिखाते हैं तो केंद्र की सरकार ही नहीं, भाजपा की राज्य सरकार ही नहीं, खुद सत्ताधारी पार्टी, उसके तमाम नेता, उनके अंदर समाए नजर आते हैं।
इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि ‘हरेक वोट अपने नाम’ मांगने वाला प्रधानमंत्री, हिमाचल में अपनी पार्टी के बागी उम्मीदवारों को बैठाने की कोशिश में, खुद बागी उम्मीदवारों को फोन करता वीडियो में दर्ज हुआ है। फतेहपुर विधानसभाई क्षेत्र से भाजपा से बगावत कर, निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे कृपाल परमार को, प्रधानमंत्री ने खुद फोन करके अपनी उम्मीदवारी वापस लेने के लिए मनाने की कोशिश की, जिसे विक्षुब्ध परमार ने वीडियो पर रिकार्ड भी कर लिया। इसके प्रधानमंत्री के अपना पद का दुरुपयोग करने का मामला होने की कांग्रेस की शिकायत से कोई चाहे सहमत हो या नहीं हो, लेकिन इससे इस सचाई का कुछ अंदाजा तो लगाया जा ही सकता है कि ‘हर वोट अपने नाम’ मांगने वालेे प्रधानमंत्री को, हिमाचल में ‘‘हार’’ खतरा नजर आ रहा है।
वैसे इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है। हिमाचल प्रदेश का किसी सत्ताधारी पार्टी को लगातार दूसरी बार नहीं चुनने का जो इतिहास रहा है, उसके अलावा भी, उपचुनाव के पिछले ही चक्र में एक लोकसभाई और चार विधानसभाई सीटों में से सभी पर कांग्रेस ने जिस तरह जीत हासिल की थी, उसके बाद से इस बार कांग्रेस का ही पलड़ा भारी माना जा रहा था। इस रुझान को और पुख्ता कर दिया है, हिमाचल में आम आदमी पार्टी का शीराजा बिखर जाने ने, जिससे अब उससे विपक्ष के ज्यादा वोट काटकर मदद पहुंचाने की सत्ताधारी भाजपा उम्मीद नहीं कर सकती है। वैसे हिमाचल में भाजपा की हताशा का ‘‘मोदी फोन प्रकरण’’ जैसा ही एक और साक्ष्य भी सामने आ चुका है। यह साक्ष्य है, राज्य के लिए भाजपा द्वारा जिस 11 सूत्री चुनाव घोषणापत्र को जारी किया गया है, उसमें ‘‘समान नागरिक संहिता’’ को अपना वादा नंबर एक बनाया जाना। मुश्किल से दो फीसद मुस्लिम आबादी वाले इस पर्वतीय प्रदेश में भाजपा का इस हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक तुरुप को खेलना, हार सामने देखकर मोदी राज के बदहवासी में, अपने आजमूदा हथियारों की शरण लेने को ही दिखाता है।
बेशक, यह भी कोई संयोग ही नहीं है कि गुजरात में भी भाजपा, आरएसएस के सांप्रदायिक तरकश के उसी तीर का सहारा ले रही है। और यह तब है, जबकि मोदी ने चुनाव आयोग की मदद से, तीन हफ्ते से ज्यादा फुल-टाइम गुजरात में चुनाव प्रचार में लगाने का इंतजाम कर लिया है और ‘मैंने गुजरात को बनाया’ जैसे अनाकार्थी नारे से, चुनाव को ज्यादा से ज्यादा अपने ऊपर केंद्रित करने का भी एलान कर दिया है। वैसे मोदीशाही के गुजरात में इस रास्ते पर बढऩे के संकेत तो तभी मिल गए थे, जब विधानसभाई चुनाव की पूर्व-संध्या में, बिलकिस बानो केस के सजायाफ्ता अपराधियों को राज्य सरकार की सिफारिश पर और केंद्र सरकार की मंजूरी से, स्वतंत्रता दिवस के नाम पर माफी दी गयी थी। लेकिन, ऐसा लगता है कि मोदीशाही को, गुजरात की जनता की नाराजगी को भटकाने के लिए, 2002 के नरसंहार के जख्मों को कुरेदना भी काफी नहीं लगा है और वह अब समान नागरिक संहिता के नाम पर राज्य और समाज को और नये सांप्रदायिक जख्म बनाने का आश्वासन देकर, अपने सांप्रदायिक समर्थकों को कुछ और जोश दिलाना चाहती है। विकास-फिकास सब भुलाए जा चुके हैं, अब तो बस एकमात्र नेता की एक ही पुकार है–तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हेें सांप्रदायिक नफरत दूंगा!
*(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*