Saturday, September 7

आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस जातीय जनगणना के मुद्दे पर जोर देकर आगे बढ़ रही है, कांग्रेस का ये दांव काम कर गया तो एक साथ कई पार्टियों के लिए सिरदर्द हो जाएगा.

जातीय जनगणना पर कांग्रेस का बिगुल, अगर तीर लगा निशाने पर तो कांग्रेस कर सकती है सबका हिसाब बराबर

बिहार में हुई जाति जनगणना से पूरे देश की सियासत गरमा गई है. 5 राज्यों में विधानसभा और साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जाति जनगणना एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आ रहा है. सोमवार यानी 9 अक्टूबर को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सत्ता में आने पर देश में जातीय जनगणना कराने का फैसला किया है.                       

राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर ओबीसी की भागीदारी के मुद्दे से ध्यान बंटाने का आरोप लगाते हुए कहा कि वो देश की सामाजिक आर्थिक हकीकत का एक्सरे कराने से डर रहे हैं. राहुल ने कहा कि इस मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए वो (पीएम मोदी) अलग-अलग तरह के तरीके भी अपनाएंगे. पार्टी ने ये भी ऐलान किया कि सत्ता में आने पर वो महिला आरक्षण को भी तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए उचित कदम उठाएगी.

इसके अलावा कांग्रेस ने राजनीतिक दांव चलते हुए जातीय जनगणना से एक कदम और आगे बढ़ते हुए आरक्षण की 50 फीसदी की मौजूदा अधिकतम सीमा को हटाने के लिए कानून लाकर आबादी के हिसाब से ओबीसी, एससी-एसटी की भागीदारी देने की बड़ी घोषणा भी कर दी.

इसमें कहा गया है कि जाति जनगणना पूरे देश में समुदायों की सही और सटीक सामाजिक आर्थिक स्थिति को सामने लाने के लिए बहुत आवश्यक है. इससे सामाजिक न्याय की नींव मजबूत तो होगी ही साथ ही जो आंकड़े निकलकर सामने आएंगे वो समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए नीतियों के निर्माण में एक ठोस डेटा संचालित आधार प्रदान करेंगे.

 

बता दें कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं ने पिछले कुछ समय में जातीय जनगणना के मुद्दे को जोरशोर से उठाया है. इसके साथ एक नारा भी लगाया जाता है, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी.. उसकी उतनी हिस्सेदारी’. राहुल गांधी ने इसी साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली में पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के विकास के लिए जातीय जनगणना की मांग की थी और यही नारा भी दिया था.

इसी रैली में राहुल गांधी ने 2011 के जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने और पिछड़े वर्ग, दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण देने की मांग भी उठाई थी. दरअसल जातिगत संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग कर विपक्ष दलितों और पिछड़ों के बड़े वोट को अपने पक्ष में लाना चाहता है. इससे बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति और ओबीसी जातियों के समीकरण को कमजोर करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है.

बीजेपी के बड़े वोट बैंक पर कांग्रेस की नजर!
लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव बीजेपी के पक्ष में ओबीसी का वोटबैंक बड़ी संख्या में है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से इसमें और इजाफा देखा गया है. पिछले दो लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो ये बात पता चलती है कि बीजेपी के पक्ष में ओबीसी वोटर लामबंद हुए हैं, वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों खासतौर पर कांग्रेस की पकड़ इन वोटरों पर कमजोर हुई है.

सीएसडीएस के आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पक्ष में 22 प्रतिशत ओबीसी मतदाताओं ने मतदान किया, लेकिन 2014 में ये आंकड़ा बढ़कर 34 प्रतिशत हो गया. इसी चुनाव में नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे. वहीं इसके 5 साल बाद जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुए तो ये आंकड़ा बढ़कर 44 प्रतिशत हो गया. वहीं कांग्रेस के पक्ष में इन दोनों ही चुनावों में सिर्फ 15 प्रतिशत वोट ही आए. ऐसे में इन्हीं आंकड़ों को देखते हुए कांग्रेस इस बार ये बड़ा वोट बैंक अपने पक्ष में करना चाहती है.

इंडिया गठबंधन में मजबूत होगी कांग्रेस की स्थिति!
बिहार में 2 अक्टूबर को जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी की गई है. इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद से ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पूरे देश में जोर शोर से जातीय जनगणना करवाने की मांग कर रहे हैं.

अब इस मुद्दे पर नीतीश और लालू से एक कदम आगे बढ़ते हुए राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ‘जितनी आबादी उतना हक’ की बात करते हुए आगे बढ़ रही है. साथ ही महिला आरक्षण के मुद्दे को भी कांग्रेस जोर-शोर से उठा रही है.

कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी ने ये भी कहा कि I.N.D.I.A गठबंधन से भी जातीय जनगणना के मुद्दे पर बात की जाएगी. फिलहाल कांग्रेस की नजर पांच राज्यों के चुनावी नतीजों और इस मुद्दे पर है. यदि पार्टी इसमें मजबूत होती है तो उसकी स्थिति गठबंधन में भी मजबूत होगी.

चुनाव से पहले आरक्षण कार्ड खेल रही कांग्रेस
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव बेहद नजदीक हैं. इन राज्यों में लोकसभा की 83 सीटें हैं. पिछले आंकड़ों पर गौर करें तो बीजेपी ने यहां 65 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को सिर्फ 6 ही सीटों पर जीत मिली थी.

वहीं 5 राज्यों में विधानसभा की कुल सीटों की संख्या 689 है और ये कुल असेंबली सीट का छठा हिस्सा है. खास बात ये भी है कि इन राज्यों में विपक्ष के I.N.D.I.A गठबंधन के कुछ खास असर नहीं है. इन राज्यों में सीधा मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस की बीच है.

वहीं तेलंगाना में भी केसीआर की पार्टी किसी के साथ नहीं है. ऐसे में आगामी चुनाव से पहले कांग्रेस जातीय जनगणना की बात करके ओबीसी कार्ड खेल रही है. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव से पहले ही इस मुद्दे को जोरशोर से उठाना शुरू कर दिया है. साथ ही ये भी तय है कि लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस इस मुद्दे के साथ आगे बढ़ने वाली है.

मंडल बनाम कमंडल 2 की लड़ाई!
बिहार जाति सर्वेक्षण मंडल बनाम कमंडल राजनीति के दूसरे चरण की शुरुआत हो सकती है, जिससे भाजपा के लिए हिंदुत्व की राजनीति करना मुश्किल होती है. मंडल आंदोलन के बाद से बीजेपी ने एक लंबा सफर तय किया है. 1980 और 1990 के दशक में, जनता दल ने ओबीसी के मुद्दे का समर्थन किया था, लेकिन इसके पतन और अलग हुए समूहों के कमजोर होने से बीजेपी को मदद मिली. कई बीजेपी नेता इन जातियों से जुड़े संगठनों से उभरे हैं.

आज, जहां बीजेपी और संघ परिवार सक्रिय रूप से अपने कैडर का निर्माण कर रहे हैं और ओबीसी समुदायों के बीच से नेतृत्व विकसित कर रहे हैं. वो भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब स्थिति 1990 के दशक से अलग है.

1989 में ओबीसी सांसदों की संख्या अचानक 11 प्रतिशत से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई थी और 2004 तक बढ़ती रही, उस वक्त तक ये 26 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. हालांकि 2009 में ये संख्या घटकर 18 प्रतिशत पर आ गई थी. इसके बाद 2019 में सबसे ज्यादा बीजेपी के एक तिहाई सांसद (301 में से 113) ओबीसी समुदाय से थे.

6 राज्य द्वारा करवाया जा रहा सर्वे
चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले और बिहार की जाति राजनीति पर नजर रखने वाले आशुतोष कुमार ने इंडिया टुडे से हुई बातचीत में कहा, “हलवा का प्रमाण खाने में है. हमें यह देखना होगा कि बिहार जाति सर्वेक्षण डेटा को नीति निर्धारण में कैसे लागू किया जाता है. बिहार को उन समुदायों के लिए क्रीमी लेयर नीति को भी आगे बढ़ाना होगा, जिनके पास आरक्षण का बड़ा लाभ है. इससे सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) असहज हो जाएगी.”

वहीं 6 अन्य राज्य भी अपने-अपने जाति सर्वेक्षण कर रहे हैं. बीजेपी को इस बात का अहसास है कि 2024 के आम चुनाव के लिए ओबीसी उसकी योजनाओं के केंद्र में है. पार्टी को इस बात पर निर्णय लेने की जरूरत है कि क्या ओबीसी के लिए अधिक आरक्षण की मांग के रास्ते पर चलना है या जातिगत पहचान पर पर्दा डालने के लिए बड़े हिंदुत्व के कार्ड का इस्तेमाल करना है? हालांकि, मंडल बनाम कमंडल की पहली लड़ाई में बीजेपी बिल्कुल पिछड़ गई थी. पार्टी को 10 साल बाद सहयोगियों के जोड़-तोड़ से सत्ता नसीब हुई थी.

उत्तर से दक्षिण तक ओबीसी जातियों का दबदबा
उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ओबीसी जातियों का दबदबा है. कर्नाटक में भी जातीय सर्वे की रिपोर्ट जारी करने की मांग तेज हो गई है. यहां भी करीब 42 प्रतिशत ओबीसी हैं. उत्तर भारत के राज्यों में भी ओबीसी समुदाय की आबादी करीब 45 प्रतिशत के आसपास है.

सीएसडीएस के मुताबिक हिंदी हार्टलैंड में जहां ओबीसी वोटर्स सबसे अधिक प्रभावी हैं, वहां लोकसभा की 225 सीटें हैं. बीजेपी और उसके गठबंधन को 2019 में इनमें से 203 सीटों पर जीत मिली थी. सपा-बसपा को 15 और बाकी 7 सीटें कांग्रेस को मिली थी.  ऐसे में अगर कांग्रेस का ये कार्ड चल जाता है तो वो एक बड़ा वोट बैंक हासिल करने में कामयाब हो सकती है.

बीजेपी ही नहीं सपा और आरजेडी के लिए भी सिरदर्द
90 के दशक में जब मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हुई तो जातिवादी समीकरणों में कांग्रेस उलझकर रह गई. राममंदिर आंदोलन के चलते सवर्ण बीजेपी के पाले में चले गए. एसटी/एससी बीएसपी और ओबीसी खासकर यादव सपा के पाले में हो गए.

यूपी जैसे बड़े राज्य में कांग्रेस का पूरी तरह से खात्मा हो गया. लेकिन पार्टी जिस आक्रमक तरीके से जातीय जनगणना के मुद्दे को हवा दे रही है उससे क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ा खतरा हो सकता है. हालांकि, बीएसपी भी कांग्रेस के इस दांव से परेशान हो सकती है क्योंकि इंदिरा गांधी के जमाने में दलित भी कांग्रेस के कोर वोटर थे. कुल मिलाकर देश में जातीय समीकरणों वाली राजनीति के शुरू होने के बाद से कांग्रेस को जिस तरह नुकसान हुआ है उसकी भरपाई एक बार में हो सकती है अगर जातीय जनगणना का दांव सटीक बैठ जाता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *