
17 मार्च को गुरु बालकदास शहादत दिवस का आयोजन अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों / स्थान में करें. 17 मार्च शहादत दिवस, गुरु के स्मरण और नमन करने का दिन है. अतः इस दिवस के गरिमा के अनुरूप कार्यक्रम आयोजित करें व 16 और 17 मार्च को अपने घरों व धर्मस्थलों (निशाना, जैतखाम और नामघर / गुरुघर / गुरुद्वारा / सतनाम भवनों) में दीप जलाएं.
मार्च, सन् 1860 ईस्वी में औराबांधा-मुंगेली जिला, छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु बालकदास जी के ऊपर रात्रि विश्राम के समय विरोधियों के प्राणघातक हमलों के परिणामस्वरुप शहादत को प्राप्त हुए की स्मृति में गुरु बालकदास शहादत दिवस मनाया जाएगा.
SPM बिलासपुर/रायपुर: शहादत दिवस के संबंध में जानकारी देते हुए लेखक (सतनाम आंदोलन सतनामी शौर्य के इतिहास ) शोध कर्ता [रामकुमार लहरे]
गुरु बालकदास जी का जन्म 18 अगस्त सन् 1805 ई. को दक्षिण एशिया में मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में स्थित सोनाखान रियासत के गिरौद (गिरौदपुरी), गांव में गुरु घासीदास और सफूरा के पुत्र के रूप में हुआ. ये बचपन से ही अपने पिता के विचारों से प्रभावित थे. इसलिए अपनी कम उम्र में ही इन्होंने सन् 1820 ईसवी से चले सतनामी आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिए और बाद में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई.गुरु घासीदास जी के बाद सन् 1850 ईसवी में ये सतनामियों के प्रमुख मार्गदर्शक व गुरु बने. इन्होंने गुरु घासीदास द्वारा शुरु किए गए आंदोलन को पूरी गति से आगे बढ़ाया. गुरु घासीदास जी के समय विभिन्न कथित जाति समूह के लोगों ने अपने पूर्व जातिय पहचान को छोड़कर इस आंदोलन में शामिल होकर समतावादी समाज का अंग बने थे. जिनकी संख्या लाखों में थी. जो मैदानी क्षेत्र की कुल जनसंख्या की लगभग आधी थी और लगातार बढ़ रही थी. इनका सोनाखान के जमींदार राम राय के पुत्र वीर नारायण सिंह और आदिवासियों के साथ मित्रता पूर्ण संबंध था.
औराबांधा -मुगेली, छत्तीसगढ़ का वह स्थान जहां 16 मार्च 1860 ईसवी को रात में गुरु बालकदास जी के ऊपर प्राणघातक हमला हुआ था.
सन् 1857 ईसवी के गदर के बाद भारत का शासन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से अंग्रेजी सरकार ने नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया. अंग्रेजी सरकार ने अपने शासन के बेहतर प्रबंधन के लिए मालिक मकबूजा कानून लागू किया, जिसके अनुसार ऐसे काश्तकार जो सन 1840 ईसवी से अपनी भूमि-संपत्तियों पर काबिज थे व काश्तकारी कर रहे थे, सर्वे के बाद उनका नाम सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किया जाना था. इस संबंध में कहीं कोई विवाद होता, तो उस क्षेत्र के मान्य मुखिया के राय के अनुसार अंतिम निर्णय लिया जाता. इससे गुरु बालकदास जी की स्थिति किसी न्यायाधीश (जज), या राजा की तरह हो गई थी, जिसके कारण आम लोक-समाज उन्हें राजा गुरु कहती थी.
शहादत दिवस का प्रचार प्रसार करते हुए एसपीएम सदस्य/समर्थक
सन् 1820 ईस्वी में शुरु हुए सतनामी आंदोलन से लोगों ने अपनी संपत्तियों को पेशवाशाही मराठा सामंतों, जमीदारों, सैनिकों और उनके स्थानीय समर्थकों से अपने कब्जे में ले लिया था. अंग्रेजों के मालिक मकबूजा कानून, गुरु बालकदास जी का आम लोक- समाज के संरक्षक की भूमिका, उनके लोकहित में किए जा रहे कार्यों और आम जनता द्वारा उनको प्राप्त सम्मान के कारण, उनके महत्वपूर्ण स्थिति से जातिवादी-सामंती-असमानतावादियों में खलबली मच गई. जो यह सोच रहे थे, कि गुरु बालकदास जी के बाद उनका आंदोलन व प्रभाव खत्म हो जाएगा, और वे सतनामियों के भूमि-संपत्तियों को छीन लेंगे. लेकिन उन्हें अब ऐसा करना असंभव लग रहा था, क्योंकि सरकारी दस्तावेजों में एक बार नाम और भूमि-संपत्ति दर्ज हो गया तो वे भविष्य में कभी भी किसी के जमीनों और संपत्तियों पर कब्जा नहीं कर पाएंगे. ऐसा करने में वे सक्षम नहीं थे. वे सन् 1857 ईसवी के विद्रोह को देख चुके थे, जिसमें कंपनी सरकार के सेना से विद्रोही पराजित हुए थे.
बिलासपुर में पहली बार 19 मार्च 2001 को संयुक्त सतनामी मोर्चा अमेरी -बिलासपुर द्वारा जैतखाम चौंक अमेरी -बिलासपुर में गुरु बालकदास शहादत दिवस मनाया गया.
इस स्थिति से निपटने के लिए जातिवादी-सामंती-असमानतावादी तत्वों ने राष्ट्रव्यापी षड्यंत्र किया, क्योंकि उस समय छत्तीसगढ़ में सतनामियों की स्थिति उनके भूमि पर अधिकार और एकता के कारण बहुत शक्तिसंपन्न थी. वे आमने-सामने की लड़ाई में सतनामियों से स्थान- स्थान पर हार रहे थे, कई स्थानों पर उन्हें लगातार पीछे हटना पड़ रहा था. जहां वे काबिज थे, उन स्थानों में भी वह कब तक रह पाते यह निश्चित नहीं था. इसलिए उन्होंने छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बाहर से ऐसे अपराधियों-बदमाशों को आमंत्रित किया, जिनके पास एक एकड़ भी जमीन नहीं था. उनको कहा गया कि छत्तीसगढ़ में एक आदमी की हत्या करनी है, उसके बाद हजारों एकड़ जमीनों के मालिक बनोगे, प्रशासन में मौजूद हमारे लोग आपको संरक्षण प्रदान करेंगे. इस तरह बाहर के सैकड़ो लोगों को छत्तीसगढ़ बुलाकर उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया गया.
इसी दरमियान गुरु बालकदास बोड़सरा बाड़ा-बिलासपुर से रामत के लिए निकले. कुछ समय बाद औराबांधा-मुंगेली में रावटी का आयोजन किया गया था. उस रावटी में गुरु बालकदास जी 16 मार्च 1860 ईसवी को जब रात्रि विश्राम कर रहे थे. तब दुश्मनों ने योजनाबद्ध तरीके से गुरु बालकदास जी को लक्ष्य बनाकर प्राण घातक हमला कर दिया, प्रारंभिक अफरा-तफरी के बाद सुरक्षा दस्ता ने संभलते हुए आक्रमणकारियों का मुकाबला करना शुरु कर दिया, काफी समय तक दोनों पक्षों के बीच रुक-रुक कर संघर्ष चलता रहा. आखिर में आक्रमणकारी दुश्मनों को रणक्षेत्र छोड़कर भागना पड़ा, लेकिन तब तक गुरु बालकदास जी लड़ते हुए गंभीर रूप से घायल हो चुके थे, सुरक्षा दस्ता के प्रमुख सरहा ने इसकी सूचना भंडार (भंडारपुर) और नवलपुर आक्रमण शुरु होते ही भेज दिया था. दुश्मनों के भागने के बाद सुरक्षा दस्ता गुरु बालकदास जी को भंडार की ओर ले जाने लगे, लेकिन बाद में रास्ता बदलकर नवलपुर की ओर आगे बढ़ने लगे, नवलपुर पहुंचने के पहले ही रास्ते में कोसा गांव में गुरु बालकदास जी ने 17 मार्च 1860 ईसवी को अंतिम सांस लिया. भुजबल महंत अपने खड़ैतों को साथ लेकर कोसा पहुंचे और गुरु बालकदास जी के पार्थिव शरीर को नवलपुर-बेमेतरा लाकर अंतिम क्रियाकर्म किए. इस प्रकार गुरु बालकदास जी हमारे भूमि-संपत्ति, स्वाभिमान और मानवाधिकार के लिए शहीद हो गए.
उनके शहादत के बाद सतनामियों के भूमि-संपत्तियों पर कब्जा किया गया, अनिश्वरवादी विचारधारा को ईश्वरवाद में फंसाया गया, षड्यंत्र कर सतनामी से रामनामी, सूर्यवंशी, सक्ताहा आदि में टुकड़े-टुकड़े किया गया. सतनामियों को अन्य मित्र वगों, जिन्होंने सतनामी आंदोलन में बढ़-चढ़कर साथ सहयोग दिया था, जैसे अहीर (यादव-रावत), तेली, कुर्मी, आदिवासियों आदि के साथ दुश्मनी कराने का षड्यंत्र किया गया तथा सतनामियों को नीच व अछूत घोषित किया गया. इससे धीरे-धीरे शक्तिशाली सतनामी संघ लगातार कमजोर होता गया. इस तरह साम-दाम-दंड-भेद नीति से सतनामियों के खिलाफ चौतरफा दमन किया गया जो आज तक जारी है.
हम उनके द्वारा किए गए महान कार्यों व उनके शहादत गाथा को जन-जन में प्रचार-प्रसार करते हुए मानवाधिकार और समतावादी शक्तियों व संगठनों को मजबूत करते हुए, अन्याय-अत्याचार और शोषण के खिलाफ संघर्ष तेज करें! क्योंकि आज भी हमारा मान-सम्मान, अधिकार और भूमि संपत्ति खतरे में है…
आगे उन्होंने अपील किया कि; बिना किसी जाति-वर्ग, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, पहनावा, वेशभूषा, खानपान, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता, क्षेत्र आदि भेद के सभी व्यक्तियों व संगठन 17 मार्च को गुरु बालकदास शहादत दिवस का आयोजन अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों / स्थान में करें. 17 मार्च शहादत दिवस, गुरु के स्मरण और नमन करने का दिन है. अतः इस दिवस के गरिमा के अनुरूप कार्यक्रम आयोजित करें व 16 और 17 मार्च को अपने घरों व धर्मस्थलों (निशाना, जैतखाम और नामघर / गुरुघर / गुरुद्वारा / सतनाम भवनों) में दीप जलाएं.