Friday, March 29

क्या यह न्यायपालिका के खिलाफ युद्ध का ऐलान है? (आलेख : राजेंद्र शर्मा)

मोदी सरकार के कानून मंत्री, किरण रिजजू ने संसद के चालू शीतकालीन सत्र के दौरान राज्य सभा में प्रश्नकाल के दौरान पूरक प्रश्नों का उत्तर देते हुए, देश भर में पांच करोड़ से ज्यादा मामले अदालतों के सम्मुख विचाराधीन पड़े होने की दुहाई दी। फिर, अपनी सरकार को इस मामले में पूरी तरह से पाक-साफ बताते हुए, बल्कि इसका भी दावा करते हुए कि कार्यपालिका की ओर से विचाराधीन मामलों का बोझ घटाने के लिए सभी संभव कदम उठाए गए हैं, मुकद्दमों की विशाल संख्या जमा हो जाने का ठीकरा न्यायपालिका के सिर पर फोड़ दिया। यह दिखाते हुए कि जैसे इस समस्या के लिए उच्च न्यायपालिका के गलत निर्णय तथा न्यायाधीशों की आरामतलबी ही जिम्मेदार है, कानून मंत्री ने न्यायपालिका के सामने इसकी मांग भी रख दी कि अदालतों की छुट्टिïयां कम की जानी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने इसकी तानाशाहाना मांग भी पेश कर दी कि सर्वोच्च न्यायालय को जनहित याचिकाओं और जमानतों जैसी गैर-जरूरी या तुच्छ सुनवाइयों में अपना समय खराब करने की जगह, जरूरी मुकद्दमों का बोझ घटाने में समय लगाना चाहिए!

हैरानी की बात नहीं है कि उच्चतर न्यायपालिका की जरूरत से ज्यादा छुट्टियों से लेकर, गैर-जरूरी या तुच्छ मामलों में समय बर्बाद करने तक की इन आलोचनाओं पर, न्यायपालिका की ओर से तीखी प्रतिक्रिया हुई। लेकिन, इससे भी ज्यादा व्यापक और उग्र प्रतिक्रिया कानून मंत्री की सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित याचिकाएं और जमानत याचिकाएं सुनना बंद करने की मांग पर हुई।

आखिरकार, शीर्ष न्यायपालिका द्वारा सुनवाई के इन दोनों विषयों का संबंध सीधे नागरिकों के अधिकारों से है। जहां जनहित याचिकाएं, नागरिकों की आवाज सुने जाने की, हमारे संविधान के अंतर्गत की गयी व्यवस्थाओं का विस्तार करती हैं, जमानत याचिकाएं सीधे नागरिकों की स्वतंत्रता सुनिश्चिता करने के तकाजों को संबोधित करती हैं। अचरज नहीं कि बढ़ते पैमाने पर तानाशाही की प्रवृत्तियों का प्रदर्शन कर रही मोदी सरकार, इस रास्ते से भी नागरिकों के अधिकारों को सिकोड़ना चाहती है। अंतत: सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश को, सार्वजनिक रूप से कानून मंत्री को यह कहकर जवाब देना पड़ा कि मुकद्दमे छोटे-बड़े नहीं होते हैं और जमानत के मुद्दे तो हर्गिज नहीं, जिनका संबंध नागरिकों की स्वतंत्रता के छिनने या कायम रहने से होता है।

बहरहाल, कानून मंत्री के राज्यसभा के उसी दिन के हस्तक्षेप से यह भी साफ था कि विचाराधीन केसों का बढ़ता बोझ, न्यायपालिका द्वारा कम महत्व के मामलों को अनुचित प्राथमिकता दिया जाना वगैरह तो सिर्फ बहाने हैं। सरकार को असली दिलचस्पी उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा तबादलों की प्रक्रिया को अपने हिसाब से बदलने में है।

राज्यसभा में पूछा गया मूल प्रश्न, उच्च न्यायपालिका में खाली जगहों तथा नियुक्तियों की धीमी रफ्तार के संबंध में था। और यह प्रश्न, सुप्रीम कोर्ट तथा होईकोर्ट में नियुक्तियों व तबादलों के लिए, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश समेत, पांच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों के कॉलीजियम की सिफारिशों को, मोदी सरकार द्वारा अनुचित रूप से लटकाए जाने की शिकायतों के संदर्भ में पूछा गया था। वास्तव में इससे कुछ ही पहले सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने बाकायदा अदालत में मोदी सरकार के प्रतिनिधि के जरिए देश की सरकार को कुछ कड़वेपन के साथ यह संदेश भिजवाया था कि वह नियुक्तियों की उसकी सिफारिशों को अनिश्चित काल तक रोके नहीं रह सकती है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून को निरस्त करने के सुप्रीम कोर्ट की संविधान बैंच के फैसले के बदले के तौर पर, सरकार न्यायिक नियुक्तियों को रोक रही थी।

इसके जवाब में जब कानून मंत्री तथा सरकार की ओर से कुछ और लोगों ने कॉलीजियम व्यवस्था की ही आलोचना की। इस पर सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कड़ाई से कहा था कि कॉलीजियम व्यवस्था ही देश का वर्तमान कानून है और सरकार को इसको लागू करना ही होगा। इसकी आलोचनाओं को बु कर एक तरफ करते हुए, अदालत ने कहा कि संसद के बनाए कानूनों के बारे में भी बहुत से लोग बहुत-कुछ कहते हैं, इससे उनके लागू होने से किसी को छूट तो नहीं मिल जाएगी। शीर्ष अदालत ने आगाह किया कि ऐसी असहमतियों के आधार पर कानून लागू करने से छूट मिलने लगे तो, कोई कानून ही नहीं रह जाएगा। बहरहाल, कानून मंत्री राज्यसभा में अपने हस्तक्षेप में संसद में पूछे गए प्रश्न का कम और सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक नियुुक्ति व तबादलों के मामले में निर्णय के अधिकार के आग्रह का जवाब ज्यादा दे रहे थे।

उन्होंने संघ परिवार की खास दोमुंही दलील की शैली का सहारा लेकर, एक ओर तो चुन-चुनकर आंकड़े पेश करने के जरिए, यह दिखाने की कोशिश की कि उनकी सरकार ने लटकाना तो दूर, नियुक्तियों के प्रस्तावों को क्लीअर करने में विशेष तत्परता दिखाई है और दूसरी ओर, हाई कोर्टों में करीब 30 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में 34 में से 7 यानी करीब 20 फीसदी पद खाली होने का ठीकरा, कॉलीजियम व्यवस्था के सिर पर फोड़ने के साथ ही, देश को यह अपरोक्ष चेतावनी भी दे डाली कि इन नियुक्तियों का मामला तब तक तो यूं ही घिसटता ही रहेगा, जब तक कि एक ‘नयी व्यवस्था’ नहीं आ जाती है।

शीर्ष न्यायपालिका के खिलाफ और खासतौर पर उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति-तबादलों की मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ, देश के कानून मंत्री पहले भी जब-तब हमले करते आए थे और कॉलीजियम की सिफारिशों पर खींचतान भी काफी समय से चलती आ रही थी। वास्तव में मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल के पूर्वाद्घ में ही जो एनजीएसी कानून लायी थी, उसके पीछे इस टकराव को कार्यपालिका के पक्ष में हल करने की इच्छा ही ज्यादा थी, हालांंकि कॉलीजियम व्यवस्था की स्वत:स्पष्ट असंगतियों के सभी आलोचक भी इसके लिए इच्छुक थे कि न्यायिक नियुक्तियों की तथा न्यायपालिका में अनुशासन की कोई स्वतंत्र, पारदर्शी तथा वस्तुगत रूप से काम करने वाली व्यवस्था बने। ठीक इसी का नतीजा एनजेएसी कानून की जरूरत पर संसद में सर्वसम्मति के रूप में सामने आया था और अंतत: संसद ने इसके लिए कानून को मंजूरी भी दी थी।

लेकिन, संबंधित विधेयक में प्रस्तावित नयी व्यवस्था के स्वरूप पर हर्गिज ऐसी सर्वसम्मति नहीं थी। मोदी निजाम के तानाशाहीपूर्ण रुझानों को देखते हुए, खासतौर पर वामपंथ ने तथा कुछ अन्य विपक्षी ताकतों ने भी, प्रस्तावित निर्णयकारी निकाय के गठन में ही केंद्र सरकार के बहुमत के जरिए, सरकार की ही मर्जी चलना सुनिश्चित किए जाने का खुलकर विरोध किया था। आखिरकार, यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता था। और मोदी सरकार ने जब इन सभी चिंताओं को अनसुना करते हुए, अपने संसदीय बहुमत के बल पर विधेयक पारित कराया, तब यह और भी साफ हो गया कि उसकी मंशा अपनी मर्जी की नियुक्तियां-तबादले सुनिश्चित करने और इस तरह कार्यपालिका पर संवैधानिक अंकुश की व्यवस्था को भी खत्म करने की ही थी।

अचरज नहीं कि अंतत: जब सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने एनजेएसी कानून को भारतीय संविधान में बुनियादी विशेषता के रूप में स्थापित, ”शक्तियों के पार्थक्य” यानी विधायिका, और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की परस्पर स्वतंत्रता न्यायपालिका के विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों की संविधान के अंतर्गत वैधता की समीक्षा के विशेष-अधिकार का उल्लंघन करने के आधार पर रद्द ही कर दिया, इस कानून के लिए सत्ता पक्ष के सिवा और कहीं कोई रोने वाला नहीं था। वास्तव में, एनजीएसी कानून के निरस्त किए जाने के बाद गुजरे पांच साल से ज्यादा का अनुभव तो यही दिखाता है कि न्यायपालिका की जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता बची है, उसे बचाने के लिए, मोदी राज द्वारा प्रस्तावित किसी भी व्यवस्था से तो, अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद, कोलीजियम व्यवस्था ही सौ गुनी बेहतर है।u

इसी संदर्भ में पिछले कुछ हफ्तों में वर्तमान कानून मंत्री के एक के बाद एक हमले ने, उनकी सरकार और शीर्ष न्यायपालिका के बीच लगातार टकराव की जैसी स्थिति बना दी है। वास्तव में इस मामले में मोदी सरकार की गहरी दिलचस्पी का संकेत देते, उपराष्ट्रपति का पद संभालते ही जगदीप धनखड़, वकालत के प्रशिक्षण की अपनी तलवार लेकर मैदान में कूद पड़े हैं।राज्यसभा में अपने पहले संबोधन में ही उन्होंने संसद को इसके लिए धिक्कारा कि उसके सर्वसम्मत कानून को खारिज कर दिया गया और कानून बनाने के अपने अधिकार की रक्षा के लिए उसने खास संघर्ष ही नहीं किया! आने वाले दिनों में ये स्वर और तेज होंगे और इनमें नयी-नयी आवाजें भी जुड़ेंगी।

महत्वपूर्ण रूप से आरएसएस ने इन आवाजों के सिर पर सीधे हाथ रख दिया है और उसके मुखपत्र, पांचजन्य ने इसी मुद्दे पर एक लंबी कवर स्टोरी कर के कॉलीजियम व्यवस्था पर सीधे हमला किया है, जिसमें कानून मंत्री के मुंह से उसे ”विदेशी” करार दिलाना भी साबित है। इसके बावजूद, मोदी राज तत्काल न्यायपालिका से सीधे टकराव में शायद ही उतरना चाहेगा। इसके बजाए, वह इस मुद्दे पर हर तरफ से शोर मचवाने की कोशिश करेगा, जबकि शासन के शीर्ष से इसका अभिनय भी किया जाता रहेगा कि ”सब चंगा सी”! संसद के इसी सत्र के दौरान किरण रिजजू का यह बयान कि एनजेएसी दुबारा लाने का सरकार का कोई विचार नहीं है, इसी दोमुंही कार्यनीति का इशारा करता है।

समान नागरिक संहिता के मुद्दे की तरह, इस मुद्दे को भी तब तक यूं ही पकाया जाता रहेगा, जब तक मोदी राज को इसका चुनाव में लाभदायक तरीके से दोहन करने का भरोसा नहीं हो जाता है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *