दिल्ली वालों, बस दिल पर मत लेना! अधिकार–वधिकार छीनने–छिनने की बात‚ तो वैसे भी इंडिया वालों की झूठी अफवाह है। माना कि शाह जी दिल्ली के लिए फिर एक नया कानून ले आए हैं और ले आए हैं, तो उसे पास भी करा के ही मानेंगे। पर वो अधिकार–वधिकार किसी के नहीं छीन रहे हैं। दिल्ली वालों के पास तो वैसे भी आठ–नौ साल में तो कभी ऐसे कोई अधिकार वगैरह थे ही नहीं। नहीं मानो तो केजरीवाल जी से ही पूछ लो। तो जो अधिकार थे ही नहीं‚ उन्हें कोई छीन कैसे सकता हैॽ अधिकार भी‚ उनका छिनना भी‚ दिल्ली वालों के हिस्से में अब तक जो भी आया है‚ सब माया है!
अब माया तो आप जानो कि ठहरी ही ठगनी। दिल्ली की पब्लिक को ठग लिया। चुनाव को चुनाव समझ बैठी तो समझ बैठी‚ चुनाव से बनी सरकार को‚ सरकार भी समझ बैठी। सरकार को सरकार समझने से बात‚ सरकार के अधिकारों तक पहुंच गयी। आखिरकार‚ बेचारे मोदी जी को ही दिल्ली वालों को चपत लगाकर इस झूठे सपने से जगाना पड़ा। बताना पड़ा कि सरकार जी तो एक ही हैं –– हम। और हमारे बाद‚ हमारा लघु रूप –– लाट गवर्नर। हमारा राज ही सत्य है‚ बाकी सब मिथ्या है। पर माया पर किसने यूं ही पार पाया हैॽ सर्वोच्च अदालत वाले झांसे में आ गए। कहने लगे चुनाव तो चुनाव है‚ सरकार तो सरकार है। अंगरेजों के टैम हुआ तो हुआ‚ लाट गवर्नर अब सरकार नहीं हो सकता। शाह जी को तब भी दिल्ली के लिए स्पेशल कानून बनाना पड़ा था। पर दिल्ली की पब्लिक माया से चिपटी रही। फिर चुनाव कराया‚ फिर वही नतीजा‚ फिर वही सरकार। फिर वही माया की ठगाई में आई सर्वोच्च अदालत। बेचारे शाह साहब फिर से दिल्ली के लिए स्पेशल कानून ला रहे हैं। और मायावी फिर से अधिकार छीन लिए‚ झपट लिए का शोर मचा रहे हैं!
पर शाह जी भी कब तक नये–नये कानून लाएंगेॽ क्यों नहीं दिल्ली के चुनाव का नाम बदलकर सुझाव कर दिया जाए और सरकार का नाम बदलकर‚ विद्वत परिषद। संस्कृति की संस्कृति और कानूनी किटकिट से मुक्ति भी। बल्कि चुनाव‚ सरकार‚ अधिकार की ऐसी माया से मुक्ति तो इस कर्तव्य काल में पूरे देश को ही मिल जानी चाहिए। चुनाव‚ संविधान‚ अधिकार‚ सब की माया पर भारी –– तीसरी पारी!