वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नागदेव की खरी… खरी… शिक्षक दिवस गुरू बिन सारा जग अंधियारा है गुरू का दर्जा गिराने में दोष हमारा है

बाॅम्बे हाईकोर्ट ने गुरू की गरिमा बनाए रखी

कुछ ही माह पहले बाॅम्बे हाई कोर्ट ने अच्छा निर्णय दिया है कि छात्रों को सुधारने के लिये एक सीमा तक बल का प्रयोग गलत नहीं है। स्केल से छात्र की पिटाई का मामला जब कोर्ट में गया तो कोर्ट ने इसे सजा नहीं माना। इस मामले में एक शिक्षिका को सजा सुनाई गयी थी जिसे बाॅम्बे हाईकोर्ट ने खरिज कर दिया। निस्संदेह यह एक अच्छा फैसला है।
ऐसा फैसला देने की नौबत इसलिये आई कि एक स्कूल की टीचर ने किसी बात पर एक बच्चे को स्केल से मारा। जिससे नाराज होकर उसके पालकों ने टीचर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी। मामला कोर्ट में चला और टीचर को सजा भी हो गयी। जब इसकी गुहार बाॅम्बे हाईकोर्ट में लगाई गयी तो ये शानदार फैसला आया।

  भलमनसाहत का दुखद सिला

एक बार राजधानी के मोवा के एक नामी स्कूूल के पीटी टीचर ने एक दसवीं की छात्रा को साथी को पत्र देते देख लिया और पत्र को जप्त कर लिया वह पत्र कोई सब्जेक्ट के नोट्स नहीं थे बल्कि रोमैंटिक लवलेटर था।
टीचर उस छात्रा की बदनामी न हो ये सोचकर उसे प्रिन्स्पिल के पास नहीं ले गया और सम्पूर्ण सज्जनता दिखाते हुए उस लड़की की भलाई के लिये शाम को उसकी मां से मिलने उसके घर गया।
मां के साथ क्या बातचीत हुई ये पता नहीं पर परिणाम अत्यंत निराशाजनक और दुखदायी हुआ कि उस लड़की ने टीचर पर ही प्रताड़ना की आरोप लगा दिया। मां ने मामले को तूल दे दिया और स्कूल में भी और थाने में भी रिपोर्ट करा दी। टीचर सस्पेण्ड हो गया।

अब ऐसी घटनाओं के बाद क्या कोई भी इंसान उस टीचर जैसी सज्जनता दिखा सकता है ? कोई भी टीचर कभी भी अपने छात्रों की भलाई के लिये ऐसा कदम उठाएगा जिससे उसके ही दामन पर दाग लगा दिया जाए ?
बस तो सोचिये गलती करने पर हम अपने बच्चों को टीचर द्वारा दी गयी सजा पर नाराजगी दिखाकर क्या संस्कार देना चाहते हैं बच्चों को ?

अपनी स्टाईल प्राचार्य का समझ न आई
जमकर कर दी बेमुरव्वत ठुकाई

1977 स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर। कक्षा 7। कक्षा में मस्ती करना हमारा अधिकार था लिहाजा कर रहे थे। कोई टीचर… साॅरी… कोई दीदी नहीं थी क्लास लेने के लिये। सरस्वती शिशु मन्दिर में शिक्षिका को मैम नहीं दीदी कहा जाता  था।
तो हम सब क्लास में मस्ती कर रहे थे। ऐसे में अचानक प्राचार्य आ पहुंचे धोती-कुर्ते में, उंचे, पूरे। उन्होंने दूर से ही घूरकर देखा और वापस चल दिये। मुझे लगा चलो बला टली। चैन की सांस ली कि थोड़ी देर में घंटी बजाने वाली जिसे हम माई कहते थे, आई और कहा जवाहर को आचार्य जी ने बुलाया है। गिर गई बिजली। डरते-सहमते पहुंचे उनके कमरे में।

प्राचार्य महोदय ने हम लोग उस समय क्लास में जो कर रहे थे, फिर से करके दिखाने को कहा। मरता क्या न करता। वही मस्ती उन्हें करके दिखाई। उन्होंने बिना किसी मुरव्वत के झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद दी। गाल लाल हो गये। मैने सोचा ‘लाल गाल लेकर क्लास में जाना बड़ा बुरा लगेगा’।
लेकिन प्राचार्यजी शायद कहीं से खार खाए आए थे, कदाचित्…. घर से…. घरवाली से…. ? लिहाजा लिहाज नहीं किया लाल गाल का, और दूसरे गाल पे दूसरा थप्पड़ जड़ने से पहले बाल भी पकड़ लिये।
अपने बाल भी बड़े घुघराले और देवानंद की पुरानी स्टाईल के थे, जिसमें उपर में फुग्गा बना होता था। बाल पकड़ते ही उन्हें हाथों में तेल तो लगा पर ये पता चल गया कि बाल बड़े हैं ये मेरी दूसरी गलती पकड़ी गयी। थोड़ी सी झूमाझटकी के बाद बाल छोड़े और फर्मान जारी कर दिया कि कल बाल कटाकर आना।

पहुंचे घर पिटे-पिटाए
दिल पे गंभीर चोट खाए

शाम को घर पहुंचकर पिटाई और अपमान का सारा हाल पिताजी को सुनाया। सकुचाते हुए। ये हमारे संस्कार थे कि अपनी फहराई पताका का किस्सा पिता को सुनाना ही था।  अपने पितीजी भी उसूल वाले थे सुनकर गंभीर हो गये।
आज का माहौल होता तो पिताजी सीधे प्राचार्य पर हमला कर देते और बात का  बतंगड़ बन जाता। लेकिन वो 1977 था। उपर से सरस्वती शिशु मंदिर जो संस्कारों की खान होता है। करेला उपर से नीम चढ़ा पिताजी के उसूल। पिताजी ने तत्काल बाल कटवाने का आदेश दे दिया।
लिहाजा अगले दिन बाल कटवाकर पहुंचे।
अपनी उपलब्धि बताने का तात्पर्य ये कि वो एक दौर था जब शिक्षकों का सम्मान हुआ करता था। वे वास्तव में गुरू यानि बड़े हुआ करते थे। उनका स्तर जीवन में बड़ा यानि उच्च हुआ करता  था।

टीचर पढ़ाने की औपचारिकता पूरी करता है
सिखाने का फ़र्ज नहीं निभाता

यहां ये गौर करने लायक है कि  पहले गुरूजी हुआ करते थे अब मैम और टीचर होते हैं। जिस तरीके से संबोधन में एक औपचारिकता दिखती है, व्यावहारिकता दिखती है, संस्कार और भावनाएं गायब हैं उसी तरह से संबंध भी प्रभावित हुए हैं। टीचर को भी लगने लगा है कि हमें पढ़ाना है और पढ़ाने का पैसा लेना है। कोई अगर पढ़ता नहीं तो हमने ठेका नहीं ले रखा है। हमें अपनी तनख्वाह तक सीमित रहना है।
टीचर बच्चों को केवल कोर्स का पढ़ाते और छुट्टी पाते हैं, सिखाने का प्रयास नहीं करते। और ये दुखद स्थिति इसलिये निर्मित हुई है कि आमजन शिक्षक को सम्मान देना भूल गया है। यदि शिक्षक ने कुछ कहा तो बस समझो म्यान से तलवार निकल गयी। एक समय था जब बाजार में यदि गुरू जी दिख जाते तो हम लोग डर जाते थे और वहीं पर या अगले दिन स्कूल में पेशी होती थी।

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जवाहर नागदेव, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, चिन्तक, विश्लेषक
मोबा. 9522170700
‘बिना छेड़छाड़ के लेख का प्रकाशन किया जा सकता है’
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