‘कुआं ठाकुर का’ बताने पर लपकते ठाकुर के लठैत (आलेख : बादल सरोज)

सांसद मनोज झा ने संसद में दिए अपने भाषण में एक कविता क्या पढ़ी, दंभी जाति श्रेष्ठता के वर्चस्व का इन्द्रासन ही डोल उठा। जाति के अप्रासंगिक हो जाने का पाखण्डी दावा और सहिष्णु बनने का नाटक करने वाली मनु के लठैतों की पूरी फ़ौज जैसे जाग उठी। हड़बड़ाहट ऐसी थी, जैसी घुप्प अंधेरी गुफाओं में सदियों से उल्टी लटकी चमगादड़ों की तब होती है, जब वहां भक्क से सूरज की रोशनी पहुँच जाये। बिलबिलाहट ऐसी थी, जैसे केंचुओं के ऊपर नमक छिड़क दिया जाये, बिच्छू की दुम पर जूता रख दिया जाए। ओमप्रकाश वाल्मीकि की “ठाकुर का कुआं” शीर्षक वाली कविता पर खड़ी की गयी वितंडा के असली मकसद पर आने से पहले इस छोटी, मात्र 56 शब्दों की कविता, जिसने स्वयंभू 56 इंची सीने वाले के कुनबे पर मूंग दल दी, को पढ़ना ठीक होगा। कविता कुछ यूं है :

चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के ।

फिर अपना क्या?
गाँव? शहर? देश?

समाज और संसाधन दोनों पर सामंती कब्जे की आपराधिकता को उजागर करने वाली यह कविता हिंदी या भारतीय भाषाओं में रचे गए साहित्य में इस तरह की पहली रचना या कविता नहीं है। इसे सामने लाने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि अकेले नहीं हैं। पिछली डेढ़-दो सदी में इस तरह का मानीखेज साहित्य खूब लिखा गया है। खुद वाल्मीकि की “जूठन” सहित सामंती जकड़न की क्रूरता को सामने लाने वाली अनगिनत आत्मकथाएं लिखी गयी है। देश की सभी भाषाओं में लिखी गयी हैं। जाति आधारित जुल्म और अत्याचारों की पूरी संरचना के रेशे-रेशे को उधेड़कर उस कालिमा को बेपर्दा किया गया है, जिसे गौरवशाली परम्परा की रोशनी बताकर गौरवान्वित किया जाता रहा है। इस देश के 5 हजार वर्षों के लिखित साहित्यिक इतिहास में भी ऐसे अनेक उदाहरण है, जो सामंती जड़ता की पथरीली जमीन पर हथौड़ा चलाते हैं। फिर इस कविता पर इतना शोर शराबा क्यों? एक तो संभवतः इसलिए कि ये कविता अपने 56 शब्दों में जिस सरलता, सहजता, वस्तुपरकता और मासूमियत के साथ भारतीय समाज की शर्मनाक सच्चाई सामने लाती है, सामंतवाद के मरखने सांड को सींग से पकड़ कर जमीन सुंघाती है, वह “उन्हें” सख्त नागवार गुजरी है। इसलिए भी कि ये इस व्यवस्था की बुनियाद पर चोट करती है, जाति श्रेणीक्रम के वायरस की सुरक्षित पनाहगाह भूमि संबंधों की तरफ ध्यान दिलाती है। वर्ण और वर्ग दोनों तरह की असमानताओं को एक साथ जोड़कर दिखाती है। सत्तावर्गों, उसमें भी उसके मौजूदा अवतारों के लिए इससे ज्यादा डरावना और क्या हो सकता है? सार पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं हैं, इसलिए रूप के पीछे लट्ठ लेकर खड़े हो रहे हैं ; ठाकुरों की इज्जत की दुहाई देकर असल बात पर पर्दा डालने की तिकडम खोज रहे हैं। ऐसा करके वे एक और कवि दुष्यंत कुमार की पंक्ति “मत कहो आकाश पर कोहरा घना है / ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है” को चरितार्थ कर रहे हैं।

उन्हें लगता है और बिलकुल ठीक लगता है कि यह कविता और उसमे निहित संदेश, हाल में बड़े प्रयत्नों के साथ फुलाए जा रहे उस गुब्बारे में सुई चुभोने का काम कर सकता है, जिसे सनातन के नाम पर भारत के आकाश में उड़ाने की उनकी योजना है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे मोदी और सत्ता के रिमोटधारी भागवत से लेकर मीडिया में बैठे चीखाओं और गाँव-मोहल्लों में बिखरे भक्त-शृगाल समूहों तक सनातन को लेकर जिस तरह की तनातनी मचाये हुए हैं, ऐसी कवितायें उनकी इस कोशिशों के दूध में नींबू की बूंदों का काम करती हैं ; उनकी उम्मीदों का दही जमा देती हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि कविता आखिर क्या करती है, कविता क्या कर सकती है? जाने-अनजाने वे यह अनदेखा कर देते हैं कि भारतीय समाज में सामंतवाद सिर्फ एक आर्थिक अवस्था नहीं है, यह जीवन शैली, सामाजिक बर्ताब और सोच को भी ढालती है। जाति और महिला प्रश्न, सामाजिक और पारिवारिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति, ऊँच-नीच की भावना और अपनों से कमतर माने जाने वालों के लिए हिकारत भाव इसी की अभिव्यक्ति हैं। यह ऐसी अभिव्यक्ति है, जो समाज के अपेक्षाकृत आधुनिक उत्पादन प्रणाली और तुलनात्मक रूप से विकसित जीवन स्तर वाले हिस्सों में भी पाई जाती है, भरपूर पाई जाती है, इन दिनों तो जैसे उनमें इसकी बहार ही आयी हुयी है। लिहाजा सामंतवाद के निर्मूलन की लड़ाई भूमि संबंधों में गुणात्मक और क्रांतिकारी बदलाव लाने के मैदानी संघर्षों, भारतीय सामंतवाद की मौलिक और सांघातिक विशेषता वर्णाश्रम के चलते कुछ हजार वर्षों में आबादी के विराट बहुमत, खासकर दलित, आदिवासी, अति पिछड़ों, पिछड़ों और महिलाओं के संपत्ति और उत्पादन के जरियों से बाहर हो जाने की विकृति को सुधारने के लिए जरूरी आर्थिक संघर्षों में लड़ी जाने के साथ-साथ विचार और चेतना के स्तर पर भी लड़ी जा रही है। एक साथ लड़ी जा रही है। यह और ऐसी कवितायें झूठे दावों के मुखौटे उतार कर बात को ठीये तक पहुंचाती हैं। उनके उस वैचारिक वर्चस्व – हेजेमनी – को तोडती है, जिसकी दम पर वे अपने शोषण के पक्ष में “सर्वानुमति’ पैदा करते आये हैं। उनके सन्निपात की वजह यही है।

इन दिनों जिस सनातन की प्राणप्रतिष्ठा में संघी गिरोह लगा है, उसकी हेजेमनी का मूल ही जाति गौरव को सनातन और ईश्वरेच्छा बताना है। मनुस्मृति इसका गुटका है, जिसकी आड़ में जिनका राज अब तक रहा है, उनके राज को ही भारत का गौरव और धर्मसम्मत परम्परा प्रमाणित करना है। ऐसा तब ही हो सकता है, जब इसके विरूद्ध होने वाले सारे विमर्श को डरा-धमकाकर खामोश कर दिया जाए, सत्ता के सारे प्रतिष्ठानों को बुलडोजर चलाकर कुचल दिया जाए। मनु ही धर्म है, मनु ही राष्ट्र है, मनु ही जीवन है, की रणभेरी फूंकी जा रही है ; सनातन उसी आलाप का मद्धम से तीव्र होता आलाप है। उन्हें भय है कि ऐसा साहित्य इस आलाप को बेसुरा बना सकता है। आज ओमप्रकाश वाल्मीकि इनके निशाने पर हैं, मगर न वे पहले हैं, न आख़िरी। बृहस्पति, चार्वाक, लोकायत से लेकर आज तक इस विचार गिरोह का यह आजमाया हुआ नुस्खा है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, फिल्में, चित्रकला सब इनके निशाने पर रही हैं। एम एफ हुसैन की कालजयी पेंटिंग्स से पुणे की मशहूर भंडारकर ओरिएंटल स्टडीज की समृद्ध लाइब्रेरी तक, हबीब तनवीर के चरणदास चोर, पोंगा पंडित जैसे नाटकों, दीपा मेहता की फिल्म त्रयी वाटर, फायर, अर्थ से शुरू हुए हमलों की यह श्रृंखला दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम से पहले रामानुजम की किताब 200 रामायणें और उसके बाद महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ को हटाते हुए लगातार तेज से तेजतर होती जा रही है। ऐसे उदाहरण भी अनेक हैं, यहाँ सिर्फ चुनिन्दा ही दिए जा रहे हैं। फलित ज्योतिष, पूजा पाठ, गौमूत्र से गोबराभिषेक और अच्छी पत्नी कैसे बने, संस्कारी संतानोत्पत्ति के शुभ मुहूर्त जैसे “विषयों” को जोड़ने के साथ स्कूली और म्हाविद्यालयीन शिक्षा के पाठ्यक्रमों को मनु-अनुकूल ढालने का काम इस हद तक जारी है कि मध्यप्रदेश में पहले प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ को कोर्स से हटाया गया। जब शोर मचा, तो उसे संपादित कर उसमें से “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे” जैसा वाक्य ही हटा दिया गया ।

यह काम सिर्फ लिखे छपे में फेरबदल करके नहीं किया जा रहा, पिस्तौल की गोलियों और चाकुओं से लिखने- पढने वालों की देह पर भी किया जा रहा है। कलबुर्गी, दाभोलकर. पानसरे, गौरी लंकेश इसी मनु-अनुकूल सनातनी सम्पादन का उदाहरण हैं। मगर सत्यान्वेषण की धुनी, सामाजिक बदलाव की आग्रही आवाजें न डरी, न सहमी, उलटे और तेज और पुरअसर हुयीं। इनसे अगर हुक्मरान डर रहे हैं, तो उन्हें और डराया जाना चाहिये ; आर्थिक सवालों पर संघर्षों को सांस्कृतिक, साहित्यिक, वैचारिक संघर्षों के साथ जोड़कर धारदार बनाना ही इसका कारगर जरिया है। यह कठिन काम नहीं है, ऐसा करना संभव है। यह बात हाल के ऐतिहासिक किसान आन्दोलन ने इसे अमल में उतार कर दिखाई है।

एक अति से लड़ते हुए दूसरी अति की ओर भटकने के भी खतरे होते हैं। कई बार झुंझलाहट और खीज में ऐसा अनायास भी हो जाता है, अक्सर सत्ता वर्ग चतुराई से ऐसा करवाता भी है। इन दिनों यथास्थितिवादियों ने कुछ मण्डल भी कमंडलधारी बना लिए हैं। उनकी सारी ताकत “हम बनाम वे” बनाने में खर्च होती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस कविता को ठाकुरों को गोलबंद करने की कोशिश इसका एक आयाम है, धूर्त आयाम है। वहीं दूसरी अति तब होती है, जब कविता के रूपक को ही सार मानकर जाति श्रेणी क्रम के विरुद्ध जरूरी संग्राम को भटकाकर एक जाति विरुद्ध दूसरी जाति के क्लेश तक सीमित कर दिया जाता है। ऐसा करना असल में मुंह-मुंह में मनु को कोसते हुए उसी की चौसर पर बैठकर उसी के पांसों से खेलना होता है। जाति की रूढ़ियों के खिलाफ लड़ाई जाति-विशेष के विरूद्ध लड़ाई नहीं है, पूरी जाति संस्था के खात्मे की लड़ाई है। वर्णाश्रमी सामंतवाद के मुकाबले झंडा उठाने वाली भारत के मैदानी संघर्षों की ताकतें और मनीषी समाज ने इस बीमारी को सर्वांगता में समझा और इसके विरूद्ध समग्रता से लड़ा। “ठाकुर का कुंआ” की तर्ज पर, कुछ ज्यादा ही खरी कविता “मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको” जनवादी कवि अदम गोंडवी ने लिखी थी, जो गोंडा के ठाकुर परिवार में जन्मे रामनाथ सिंह थे। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं, यहाँ उन्हें गिनाने का समय या स्थान नहीं है। जाति श्रेणीक्रम के विरुद्ध लड़ने वाले सामाजिक सुधार आन्दोलन के प्रमुख व्यक्तित्व इस बात के महत्त्व को समझते थे और संघर्ष को भटकने से रोकने के लिए उदाहरण प्रस्तुत करने की सावधानी बरतते थे। बाबा साहब डॉ. बी आर अम्बेडकर का महाराष्ट्र ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष के साथ पत्राचार इसकी मिसाल है। बाबा साहब ने जब मनुस्मृति को जलाने की घोषणा की, तो ब्राह्मण सभा के इस अध्यक्ष ने पेशकश की कि उस अवसर पर वे भी आ सकते हैं, मगर शर्त यह है कि मनुस्मृति को तीली दिखाने का काम खुद बाबा साहब करें, मिशन के अपने सहयोगी सहस्रबुद्धे से न करवाएं। कहने की जरूरत नही कि महाड, चावदार तालाब और बाबा साहब की सभी लड़ाईयों में उनके सहयोगी रहे सहस्रबुद्धे का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अध्यक्ष जी का इरादा साफ़ था ; वे महार बनाम ब्राह्मण ध्रुवीकरण चाह रहे थे। बाबा साहब ने उन्हें लिखा कि “आग तो सहस्रबुद्धे ही दिखाएँगे, क्योंकि मनुस्मृति सिर्फ दलितों के ही विरुद्ध नहीं है, सभ्य समाज का भी निषेध है। जो भी सभ्य समाज बनाने का पक्षधर है वह इस लड़ाई का हिस्सा है।”

हाल के दौर में यही हुआ भी है ; दोनों तरह के शोषण के खिलाफ एक साथ लड़ने की चेतना व्यवहार में उतरी है। हिंदुत्ववादी सनातनी बर्बरता के विरुद्ध यह एकता निर्णायक है, यह बात भारत को मध्ययुग में ले जाने वाले भी जानते हैं, इसीलिये वे घबराए हुए हैं। बिहार में हुयी जाति आधारित जनगणना की पहली रिपोर्ट ने ही उन्हें मुश्किल में डाल दिया है, अभी इसका दूसरा हिस्सा, आर्थिक आंकड़ों का हिस्सा भी जब जारी होगा, तो ये पता नहीं क्या करेंगे? जाति जनगणना को रोकने के लिए इन्हीं के कुनबे के लोग पहले हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगा चुके हैं, इस पहली रिपोर्ट के बाद भी गए हैं, ताकि वंचना और अभावों को उजागर करने वाले हिस्से को ही रुकवा सकें। उन्हें पता है कि ऐसी रिपोर्ट्स कविता में लिखे की पुष्टि में दस्तावेजी सबूत मुहैया करा देंगी और कुआं और खेत और फसल किस ठाकुर की है, यह सामने ला देंगी।

वे सचमुच की दुविधा में हैं। मनु उनके साध्य हैं, इसलिए साफ़ छुपते भी नहीं हैं – और चुनाव उनका साधन है, इसलिए सामने आने का भी साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। चुनाव घोषित होने से पहले ही चुनावी सभाओं की झड़ी के बीच छत्तीसगढ़ में स्वयंसेवक प्रधानमंत्री का दर्द निकल ही पड़ा। अपरोक्ष रूप से इस ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि मेरे लिए सभी गरीब एक जैसे हैं, कुछ लोग इनके बीच फूट डालना चाहते हैं। हालांकि अगले ही पल वे सम्हल कर अपने कुनबे की एक साथ दो जुबानो से बोलने की विशिष्टता पर लौट आये ; पहले खुद को ओबीसी – जो वे नहीं हैं – बताया और उसके बाद प्रमुख पिछड़ी जातियों के नाम ले लेकर उनके लिए कभी पूरी न होने वाली जुमला योजनाओं की बौछार-सी लगा दी।

सामाजिक न्याय का मुद्दा भारतीय समाज और उसमे बसे अवाम की धुरी है, इसलिए वास्तविक और आभासीय के बीच यह द्वंद्व अभी और तेज होना है। वे इसी के डर से हिंदुत्व और हिन्दू को खूंटी पर टांगकर सनातन का लबादा ओढ़ कर आये थे। यह पहनने से पहले ही उतरता दिख रहा है।

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