Friday, May 17

नए दौर के साथ किताबों का सदियों पुराना दौर खत्म.. अब कहाँ कोई पढ़ना चाहता है – अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

दूर होतीं किताबें या यूँ कह लें कि किताबों से परहेज उस युग का अंत करने जा रहा है, जहाँ हर मुश्किल सवाल का जवाब ढूँढने लोग किताबों के पास आया करते थे

सभी जानते हैं कि आज की पीढ़ी के पास पहले की पीढ़ियों की तुलना में सबसे अधिक सुविधाएँ हैं। पहले के समय में डाकिया के हाथों भेजी हुईं चिट्ठियाँ और बदले में जवाब के इंतज़ार में कई-कई दिन और महीने लोग खुशी-खुशी काट दिया करते थे। सच कहें, तो इस इंतज़ार में भी सुकून था, जबकि उन्हें यह भी नहीं पता होता था कि उनकी चिट्ठी पहुँचेगी भी या नहीं। आज के दौर में उँगलियों से चंद मिनटों में खर्रे से भी बड़े-बड़े मैसेज, टाइप करके महज़ एक क्लिक पर पलक झपकते ही सामने वाले को मिल जाया करते हैं।
यह आधुनिक दुनिया की सुविधा का एकमात्र उदाहरण है। ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनकी यदि मैं बात करने बैठूँ, तो अखबार के पन्ने खत्म हो जाएँगे, लेकिन उदाहरण नहीं। फिर भी एक उदाहरण मन में आ रहा है, जो आपके समक्ष कह देता हूँ। चिट्ठियों के समान ही आज के समय में हमारी सबसे अच्छी दोस्त कही जाने वाली किताबें भी किसी संदूक में पड़े-पड़े धूल खाने को बेबस हैं। एक क्लिक पर समस्या के समाधान खोजने की परंपरा जो दौड़ पड़ी है। अब कहाँ लोग सवालों का पुलिंदा लेकर किताबों के पास आते हैं.. अब कहाँ लोगों को सुकून की छाया किताबों में दिखती है..
पुराने समय में किताब का जो मोल था, उसे शब्दों में क्या ही बयाँ करूँ। न हाथ में मोबाइल थे और न ही सोशल मीडिया की दिखावे वाली दुनिया.. अपने जीवन का न सिर्फ खाली, बल्कि सबसे खास समय, मोबाइल के कीबोर्ड पर खिटपिट करने से परे, किताबें पढ़कर बीता करता था। सही मायने में यह पंक्ति यहाँ सटीक बैठती है: “वो दिन भी क्या दिन थे।”
जिस क्षेत्र में चाहिए, जिस बारे में चाहिए, बात जीवन की उलझनों की हो, या प्यार की मीठी यादों को ताज़ा करने की, किताबें बवंडर की तरह मन में उठ रहे सवालों के शांति से, सुकून भरे जवाब अपने साथ लिए आती थीं। ‘थीं’ शब्द का उपयोग करते हुए मन में टीस है, लेकिन क्या करें, यही सच है। आज के समय में तो इन सवालों के जवाब इंटरनेट पर मिल जाया करते हैं, फिर इस बात से भी क्या ही लेना-देना कि वो सच हैं भी या नहीं। अब लोग पहले की तरह उत्साह से कहाँ किताबें पढ़ते हैं। पढ़ते भी हैं, तो गिने-चुने लोग।
सच का आईना सही मायने में किताबें हैं। सभी को मालूम है कि इंटरनेट पर सच के साथ ही झूठ भी बिखरे पड़े हैं, फिर भी किताबें पिछड़ गई हैं। मन को शांत कर देने वाली और सुकून से भर देने वाली किताबों को रौंद गया है सोशल मीडिया और इंटरनेट। अमेरिकी उपन्यासकार विलियम स्टायरान भी एक दफा कह चुके हैं कि एक अच्छी किताब के कुछ पन्ने आपको बिना पढ़े ही छोड़ देना चाहिए, ताकि जब आप दुखी हों, तो उसे पढ़कर आपको सुकुन मिल सके। दूर होतीं किताबें या यूँ कह लें कि किताबों से परहेज उस युग का अंत करने जा रहा है, जहाँ हर मुश्किल सवाल का जवाब ढूँढने लोग किताबों के पास आया करते थे।
भले आज की पीढ़ी इस बात को माने या न माने, लेकिन शोध कहता है कि तनाव के समय सबसे प्रिय किताब पढ़ने से तनाव छूमंतर हो जाता है, क्योंकि किताबें व्यक्ति के तनाव के हार्मोन यानी कार्टिसोल के स्तर को कम करती हैं। नींद की परेशानी भी किताबों से दूर ही भागती है। रात में देर तक टीवी देखने, मोबाइल की स्क्रीन पर अपनी आँखें गढ़ाए रखने और कम्प्यूटर पर काम करने से बेशक आपकी नींद उड़ सकती है, लेकिन रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की आदत आपको अच्छी नींद की सौगात दे सकती है।
कौन कहता है कि किताबें कुछ बोलती नहीं? किताबों में बिन कुछ कहे सब कुछ कह जाने का हुनर है। इस हुनर से जिस दिन आज के युवाओं से मुलाकात हो गई, सच मानो, इंटरनेट की चकाचौंध को छोड़कर किताबों की दुनिया वाला संन्यास लेना वे अधिक पसंद करेंगे।

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