बराबरी के मैदान की मांग ही पश्चिम वालों की नक़ल है (व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)

वाह मोदी जी वाह! अपने विरोधी इंडिया वालों से तो आपने चुनाव से पहले ही चीं बुलवा दी। बताइए, कहने को चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, पर अंदर-अंदर तो सब मिलकर ही हार के बाद बनाने के लिए बहाने ही ढूंढ रहे थे। वर्ना लड़ाई के मैदान में कोई तोप-तलवार की जगह, मांगपत्र लेकर उतरता है क्या? देश भर से आकर रामलीला मैदान में इकट्ठे हुए। उस रामलीला मैदान में इकट्ठे हुए, जिसमें 1977 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष वाले इकट्ठे हुए थे और देश पर इमरजेंसी की तानाशाही लादने वाली इंदिरा गांधी को चुनाव में हराने की गुहार लगायी थी। और पट्ठी पब्लिक ने भी कमाल कर दिया, न सिर्फ पुकार सुनी, बल्कि चुनाव में इंदिरा गांधी को चारो खाने चित्त ही कर दिया। पर इस बार किसी जगजीवन राम का विरोधियों के साथ आना तो भूल जाओ, जो विपक्ष वाले जुटे थे, उन्होंने भी क्या उखाड़ लिया? अर्जी लेकर खड़े हो गए, चुनाव आयोग और न जाने किस-किस से पांच-पांच मांगें करने के लिए।

और मांगें भी कैसी? चुनाव आयोग यह पक्का करे कि लोकसभा चुनाव के लिए बराबरी का मैदान हो। और यह भी कि चुनाव आयोग विपक्षी पार्टियों के खिलाफ ईडी-सीबीआई-आईटी वगैरह की धर-पकड़, छापामारी वगैरह रुकवाए, ताकि इन एजेंसियों का इस्तेमाल कर के चुनावों को प्रभावित नहीं किया जा सके। और मांगने पर आ गए तो भाई लोग सिर्फ चुनाव आयोग के आगे झोली फैलाने पर ही नहीं रुके। रुकते-रुकते तीन मांगें और भी कर मारीं। हेमंत सोरेन और केजरीवाल की रिहाई की मांग, चुनाव के मौके पर राजनीतिक पार्टियों का आर्थिक रूप से गला नहीं दबाए जाने की मांग और चुनावी बांड महाघोटाले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच कराने की मांग भी। अब करते रहें मांग, खुद इन्हें भी पता है कि इनकी मांगें कोई सुनने वाला नहीं है। फिर भी मांग कर रहे हैं यानी मतलब साफ है। यह जानकर मांग कर रहे हैं कि न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। पर भागते भूत की लंगोटी ही भली। कम से कम राधा के न नाचने के लिए बहाना हो जाएगा — मोदी ने नौ मन तेल नहीं होने दिया। चुनाव आयोग से बराबरी का मैदान ही नहीं बनाया गया।

पर सच पूछिए तो बेचारा चुनाव आयोग भी क्या करे? विपक्ष वालों की बराबरी के मैदान के चक्कर में बेचारा चुनाव आयोग किस-किस के पीछे भागता फिरे। अब बताइए, चुनावी बांड से पैसे की मूसलाधार बरसात हुई, पर ज्यादातर बारिश भगवाइयों के खेतों में ही हुई और विरोधियों के खेतों में नाम मात्र को बारिश हुई या छींटे तक नहीं पड़े, तो इस नाबराबरी को पाटकर चुनाव आयोग कैसे बराबरी का मैदान बनाए। देने वालों ने पैसे दिए और लेने वालों ने प्राप्त किए, चुनाव आयोग बीच में काजी कैसे बन जाएगा? और सिर्फ बांड वाली बात होती तब भी कोई मान भी लेता कि ईडी-सीबीआई-आईटी वगैरह ने डरा-धमकाकर हफ्ता वसूली करायी होगी। बिना बांड के भी बड़े धनपतियों ने पैसे दिए तो, चार में से तीन हिस्सा भगवा पार्टी को ही दिया। यानी बांड या नो बांड, बड़े धनपतियों की एक ही पसंद — भगवा पार्टी। बेचारा चुनाव आयोग इसमें कर ही क्या सकता है? फिर धनपतियों को भी तो स्वतंत्रता है, पैसा बांटने की। आखिरकार, देश में डेमोक्रेसी है, बल्कि डेमोक्रेसी की मम्मी है। चुनाव आयोग भी और सरकार भी, धनपतियों की अपनी पसंद से पैसा बहाने की स्वतंत्रता को बचाएंगे या धनपतियों को कम पसंद आने वाली पार्टियों के लिए मैदान बराबरी का करने में, पसीना बहाएंगे।

और जब पैसे के मैदान में ही बराबरी नहीं होगी, तो बाकी मैदानों में बराबरी की बात सोचना ही बेकार है। बेचारे मीडिया वालों के पीछे सब हाथ धोकर पड़ रहते हैं कि बराबरी का मैदान दो, बराबरी को स्थान दो। पर सेंत-मेंत में बराबरी कहां से मिल जाएगी। आखिर, वो बेचारे भी तो धंधा करने बैठे हैं। पर चुनाव के सीजन में जब चार पैसे फालतू कमाने का मौका आया, तो लोग आ गए मुफ्त में बराबरी की मांग करने। मीडिया सेठों को ही बुद्धू समझ रखा है क्या? सिर्फ पेट पर पट्टी बांधने की ही बात होती, तब तो मैदान में, मैदान के बाहर भी, बराबरी के लिए दस-पांच करोड़ का झटका झेल भी लेते। यहां तो पेट पर पट्टी भी बांधनी पड़ जाएगी और पीठ पर सरकारी चाबुक की मार ऊपर से; बराबरी के मैदान के लिए इतना पागल कौन होगा?

और बेचारा चुनाव आयोग, उसमें भी तो इंसान ही बैठते हैं। उन बेचारों को भी अपनी नौकरी प्यारी है। नहीं, ऐसा भी नहीं है कि आयोग को डेमोक्रेसी से प्यार नहीं है या चुनाव के लिए बराबरी के मैदान की चिंता नहीं है। पर बेरोजगारी के इस जमाने में, नौकरी से बड़ी चिंता दूसरी नहीं होती है। फिर, तीन में से दो चुनाव आयुक्त तो मोदी जी ने एकदम पिछले ही दिनों भर्ती किए हैं और वह भी सीधे अपनी कलम से। नियुक्ति दाता का कुछ ख्याल करना तो बनता ही है। और मुख्य वाले चुनाव आयुक्त तो हमेशा से ही सरकार को खुश रखने वाले हैं। फिर लवासा का किस्सा भी सभी जानते हैं। बराबरी के मैदान के चक्कर में ही ऐसे लपेटे गए थे कि इस्तीफा देकर गला छुड़ाते ही बना। वर्ना बीवी, बच्चों समेत, पूरे खानदान के खिलाफ इतनी जांचें खुल जानी थीं कि या तो चुनावी बांड खरीदते नजर आते या मोदी जी की वाशिंग मशीन में निरमा से अपनी धुलाई कराते। निरमा की धुलाई झेलने से तो आंखों पर पट्टी बांधनी ही भली।

पर इंडिया वालों को तो मांगें करने से मतलब। वर्ना बताइए इस मांग की क्या तुक बनती है कि चुनाव के इस सीजन में ईडी-सीबीआई-आईटी वगैरह की कार्रवाइयां बंद होनी चाहिए। यानी केंद्र सरकार की एजेंसियों को भी सिर्फ अपने काम से काम रखना चाहिए और उसमें भी चुनाव में बराबरी का ख्याल रखना चाहिए। और राजनीतिक पार्टियों के खाते जाम करना, उनका पैसा जब्त करना, उन्हें हजारों करोड़ रुपये के नोटिस जारी करना भी बंद किए जाना चाहिए। और ये मांग किस से की जा रही थी — चुनाव आयोग से, सरकार से या सरकारी एजेंसियों से ही!

इंडिया वालों की खुद तो यह बताने तक की हिम्मत नहीं पड़ी कि मांग किस से कर रहे हैं; इन मांगों को सुनेगा कौन? या फिर क्या सुप्रीम कोर्ट ही अपनी निगरानी में बांड घोटाले की जांच कराने की हिम्मत करेगा, वह भी छ: सौ भक्त वकीलों की चीख-पुकार और स्वयं मोदी जी की लताड़ के बाद!

वैसे भी बराबरी के मैदान की मांग ही पश्चिम वालों की नकल है। बराबरी के मौकों वाले चुनाव की मांग भी। डेमोक्रेसी की मम्मी के यहां पश्चिम वालों के ऐसे नखरे नहीं चलेंगे। अभी तो चुनाव करा रहे हैं, यही क्या कम गनीमत है, मैदान तो ऊबड़-खाबड़ ही रहेगा। रही बात चुनाव फिक्सिंग के आरोपों की, तो जब सारी दुनिया में क्रिकेट पिच तक की फिक्सिंग चलती है, तो यह तो एक चुनाव भर है और वह भी मोदी जी की वापसी का। वैसे भी आयेगा तो मोदी ही!

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*

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