वरिष्ठ पत्रकार जवाहर नागदेव की खरी… खरी… मर जाता है पीड़ित, मिलता नहीं है न्याय,

कहने को सद्रक्षणाय, खलनिग्रहणाय,
वास्तव में धनिक रक्षणाय,मासूम निग्रहणाय

देश में न्याय पाना बेहद कठिन लगभग असंभव है। पीड़ित दर-दर भटकता रहता है लेकिन उसे न्याय नहीं मिलता बल्कि और भी ज्यादा अन्याय सहना पड़ जाता है। यही कारण है कि कहीं पर तो अन्याय से मुकाबले के लिये पीड़ित हथियार उठा लेता है। यदि इतनी हिम्मत नहीं कर पाता तो फिर आत्महत्या कर लेता है।

न्याय पाने के लिये कार्यवाही आगे बढ़ाने के लिये आत्महत्या तक कर लेते हैं लोग, लेकिन  अफसोस तब भी आरोपी को सजा नहीं होती। सामने वाले का जीवन समाप्त हो जाता है और सरकारी तंत्र अपनी जेब भरकर मामले का पटाक्षेप कर लेता है।

मालदार के मुहाफिज़
निर्धन के लिये निर्दयी
दिखाने का सरकारी सूत्र है सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय जबकि सरकार का वास्तविक आचरण है धनिक रक्षणाय, मासूम निग्रहणाय। कोई भी सरकारी आॅफिस हो, धनिक रक्षणाय ही उसका एकमात्र सूत्र होता है। अधिकारी का उसूल मालदार को बचाना ही होता है।

घोर निराशा में बेचारा पीड़ित सोचता है कि मर जाएगा तो उसके साथ न्याय हो जाएगा, कार्रवाई आगे बढ़ जाएगी ? और इस सोच के चलते वो आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है। बाद में कार्रवाई तो जरूर आगे बढ़ेगी पर वो पीड़ित को न्याय की दिशा में नहीं होगी, वो होगी आरोपी को केस से निकालने की दिशा में यानि आरोपी से माल लेकर केस का अस्तित्व खत्म करने की दिशा में।

और अब तो माल कुछ अधिक ही मिलेगा। क्योंकि कम परेशानी तो कम माल, अधिक परेशानी तो अधिक माल। आरोपी पर पक्का केस बनता है तो जाहिर तौर पर छूटने की कीमत भी बढ़ेगी ही। फिर जिस विभाग से त्रस्त होकर आत्महत्या जैसा कृत्य होता है उस विभाग के अधिकारी भी लपेटे में आते हैं लिहाजा वे भी जेब ढीली करते हैं जिससे और उपर वालों के वारे-न्यारे होते हैं।

कितने आए और न्याय की आस में जान पर खेल गये। जान से तो हार गये, बेचारे न्याय से भी हार गये। इन सरकारियों की जमात में मरकर भी न्याय नहीं मिलता।

आत्महनन के लिये
सरकारी तंत्र जवाबदार

यही परम्परा है इस देश के ‘सरकारियों’ की। अपवादों को छोड़ दें तो कह सकते हैं कि सारे सरकारी लोग ही ऐसी आत्महत्याओं के पाप के भागीदार हैं। कुछ बरस पूर्व एक वृद्ध रिटायर्ड कर्मी ने एक बाबू पर चाकू से हमला कर दिया था कि वो बिना पैसे के उसका काम नही ंकर रहा था। तो क्या मानसिकता बदल रही है ?

दरअसल वह वृद्ध भी कभी सरकारी मुलाजिम ही था। रिटायरमेन्ट के बाद बेटी की  शादी के लिये उसे पैसों की जरूरत थी। अपने ही पैसे के लिये वो आॅफिस के चक्कर काट रहा था मगर बिना रिश्वत उसका काम नहीं हो रहा था। तब निराशा और गुस्से में उसने ऐसा कदम उठाया।
तब इन सरकारी पिशाचों की आंखें खुलीं और उसकी ही जमा रकम उसे दी गयी। तो क्या ये मान लिया जाए कि सरकारी लोग लतखोर हो गये हैं बिना मार खाए काम नहीं करेंगे।

पहले हम सोचते थे कि चम्बल का क्षेत्र ऐसा है कि जिसमें विद्रोह पनपता है और इसीलिये वहां पर लोग हथियार उठा लेते हैं और मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।

पर अब लगता है कि सरकारी लोगों ने देश के हर आम आदमी को इतना प्रताड़ित कर दिया है कि इंसान अपना धैर्य खो रहा है और जो लड़ नहीं सकता वो जान देने पर उतारू हो रहा है। हालांकि जान देने के बाद भी उसे न्याय नहीं मिल रहा है।

घूसखोर को धरने की लागू होती परम्परा,
बेमौत मरेंगे बेईमान, इसमें संशय नहीं ज़रा

वैसे इसमें कोई कोई संदेह नहीं कि बहुत तेजी से माहौल बदल रहा है। देश में ऐसे-ऐसे काम होते जा रहे हैं जिन्हें कभी असंभव समझा जाता था। तो कोई आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही सरकारियों को बेईमानियों से मुक्त कर दिया जाए।

उत्तरप्रदेश मे ंतो ऐसा परिदृश्य साफ-साफ दिखने लगा है। कई अधिकारियों को सस्पेण्ड और टर्मिनेट करने के अलावा कई अधिकारियों को निचले पद पर तैनात किया गया है। एक बार सूचना विभाग के संबंध में शिकायत मिली कि अखिलेश सरकार में चपरासी और चैकीदार को रिश्वत देकर अफसर बना दिया गया है।

दिलचस्प यह है कि जांच करवा कर इन लोगों को वापस उनके मूल केडर में भेज दिया गया। एसडीएम को डिमोट कर वापस तहसीलदार बना दिया गया। ऐसे घपला करके पद पाने वालों को वापस चपरासी तक बनाया गया है।

निस्संदेह योगी जी के कार्यप्रणाली से सारा प्रदेश, आम जनता खुश है और सारा देश प्रेरणा ले रहा है। तो सरकारी लोगों को अब चेत जाना चाहिये। ये लफड़ेबाजी अब आगे नहीं चलने वाली। भारत बदल रहा है।

लोगों में जागृति आ रही है। सबसे बड़ी बात उपरी स्तर पर भ्रष्टाचार पर रोक की ईमानदार मंशा नजर आ रही है।
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जवाहर नागदेव, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, चिन्तक, विश्लेषक
मोबा. 9522170700
‘बिना छेड़छाड़ के लेख का प्रकाशन किया जा सकता है’
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