लोकतंत्र का गहराता संकट और संघ-भाजपा की ख़तरनाक पदचापें (आलेख : जवरीमल्ल पारख)

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह दौर आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा दौर है। न केवल आर्थिक क्षेत्र गहरे संकट में हैं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र भी गहरे संकट में हैं। धर्म के नाम पर जिस तरह एक पूरे वर्ग को देश के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है और उन्हें संविधान में मिले नागरिक अधिकारों से वंचित कर दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील किया जा रहा है, वह इस राजसत्ता के फ़ासीवादी चरित्र का ही प्रमाण है। भारत का यह फ़ासीवाद अपने चरित्र में अतिदक्षिणपंथी भी है और ब्राह्मणवादी भी। मौजूदा राजसत्ता के चरित्र को समझने के लिए आरएसएस की विचारधारा को समझना ज़रूरी है। वे अपनी राजनीतिक विचारधारा को ‘हिंदुत्व’ नाम देते हैं। यह विचारधारा उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर से ग्रहण की थी, जिन्होंने 1923 में हिंदुत्व नामक पुस्तक लिखी थी। आरएसएस ने अपने इन राजनीतिक उद्देश्यों को कभी छुपाया नहीं। इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में जो विचार पेश किये, उसके पीछे फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का प्रभाव भी था। इस पुस्तक में गोलवलकर यह प्रश्न उठाते हैं कि “अगर निर्विवाद रूप से हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं ही के फलने-फूलने के लिए है, तो उन सभी लोगों की नियति क्या होनी चाहिए जो इस धरती पर रह रहे हैं, परंतु हिंदू धर्म, नस्ल और संस्कृति से संबंध नहीं रखते” (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम, फारोस, नयी दिल्ली, पृ. 199)। स्वयं द्वारा उठाये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे लिखते हैं कि “वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं, राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते। वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं, जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें। राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा एवं संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें। जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतरों को बनाये रखते हैं, वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रवत हो सकते हैं या शत्रुवत।” (वही, 199)।

गोलवलकर की इन बातों का अर्थ यही है कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र् है और बाकी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं, लेकिन जब वे “अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें” और “खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें”। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा” (वही, पृ. 201-202)। अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो “जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दें, वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं”। स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में ग़ैर-हिंदुओं, विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते, जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे — यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा।

भाजपा जिस आरएसएस का हिस्सा है और जिसकी विचारधारा इसका राजनीतिक आधार है, वह न संविधान में यक़ीन करती है और न ही संघात्मक गणराज्य में। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक विचार नवनीत (बंच ऑफ थॉट्स) में संविधान पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था, “हमारा संविधान पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिये गये विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धांतों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं” (विचार नवनीत, ज्ञानगंगा, जयपुर, 1997, पृ. 237)। संघ और भाजपा अकेले ऐसे संगठन हैं जो संघात्मक गणराज्य में यक़ीन नहीं करते। गोलवलकर ने लिखा था, “आज की संघात्मक (फेडेरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण और पोषण करने वाली, एक राष्ट्रभाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्म शासन प्रस्थापित हो” (समग्र दर्शन, खंड-3, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृ. 128)।

भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है, क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश हैं। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की संकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों को या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है, इसलिए वह एक राष्ट्र,एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है। स्वयं आरएसएस का उद्देश्य इन शब्दों में रखा गया है: “एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्ज्वलित कर रहा है” (समग्र दर्शन, खंड-1, पृ. 11)। नरेंद्र मोदी के शासन काल में जो बदलाव हो रहे हैं, उनको हम तभी समझ सकते हैं, जब आरएसएस की उपर्युक्त विचारधारा को ठीक से समझें।

भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में, उसने उस दिशा में लगातार क़दम उठाये, जो आरएसएस की सांप्रदायिक-फ़ासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 से, जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, वह हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेज़ी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है, क़ानूनों में बदलाव। भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बार-बार दोहराती रही हैं। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना; दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना; और तीसरा, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण।

नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में राम मंदिर का न केवल निर्माण हो चुका है, वरन प्रधानमंत्री के हाथों उसका 22 जनवरी 2024 को उद्घाटन भी हो चुका है। पूरे देश में उस अवसर पर भगवे झंडे फहराये गये और वे झंडे 26 जनवरी के दिन भी तिरंगे झंडे से ज़्यादा लहराते नज़र आ रहे थे। यही नहीं, संसद द्वारा पारित क़ानून की पूरी उपेक्षा करते हुए काशी और मथुरा के मामले भी अदालतों के माध्यम से उग्र रूप से उठाये जा रहे हैं। देश के कई और हिस्सों में भी इनसे मिलते-जुलते मामलों को हवा दी जा रही है। समान नागरिक संहिता क़ानून हालांकि अभी केंद्र सरकार ने संसद में लाने की कोशिश नहीं की है, लेकिन स्वयं प्रधानमंत्री और गृहमंत्री विभिन्न जन सभाओं में इसे उठा चुके हैं। यही नहीं, भाजपा शासित कुछ राज्यों में समान नागरिक संहिता क़ानून बनाया भी जा चुका है। स्पष्ट है कि यदि भाजपा 2024 में चुनाव जीत जाती है, तो वह समान नागरिक संहिता क़ानून बनाकर उसे पूरे देश में लागू करने का प्रयास करेगी। यह इस बात से स्पष्ट है कि दूसरी पंक्ति के नेताओं से यह कहलाया जा रहा है कि 2024 के चुनाव में चार सौ से ज़्यादा सीटें जीतकर इस संविधान को बदलने का काम भी किया जायेगा। संघ-भाजपा की विचारधारा राष्ट्रवाद के नाम पर देश का सैन्यीकरण करने की विचारधारा भी है। यह महज़ संयोग नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार में ‘पिछले दो वर्षों में 40 में से 27 सैनिक स्कूल आरएसएस, हिंदुत्ववादी संगठनों अथवा भाजपा के नेताओं से जुड़े शैक्षणिक संगठनों को संचालन के लिए स्वीकृत किये गये हैं’ (जनचौक से साभार)।

इन दस सालों में ब्राह्मणवादी, मनुवादी, दलितविरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम (और ईसाई) विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताक़तों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है। यह अकारण नहीं है कि इन दस सालों में लगातार मुसलमानों पर ही नहीं, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमज़ोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बंद होते जा रहे हैं। लेकिन इन सबसे अधिक ख़तरनाक है क़ानूनों में ऐसे बदलाव, जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, वहीं दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं, उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमज़ोर किया गया है।

5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी ने संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 के उन प्रावधानों को हटा दिया, जो भारत के साथ उसके विलय के समय संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किये गये थे। आर्टिकल 370 के इन प्रावधानों को हटाये जाने से पहले भी और आज भी जम्मू और कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग था और है। लेकिन अब वह राज्य नहीं रह गया है,7 बल्कि इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। जम्मू और कश्मीर ऐसा केंद्रशासित प्रदेश होगा जिसमें एक विधानसभा तो होगी, लेकिन जिसे वे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे जो पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को होते हैं। जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल की सलाह और स्वीकृति के बिना वहां का मंत्रिमंडल कोई काम नहीं कर सकेगा। लद्दाख भी केंद्र शासित प्रदेश होगा लेकिन उसकी कोई विधान सभा नहीं होगी और वह सीधे केंद्र द्वारा ही शासित होगा। इस तरह जम्मू और कश्मीर राज्य को जो स्वायत्तता प्राप्त थी, उसने सिर्फ़ वही नहीं खो दी है, बल्कि उसे वह स्वायत्तता भी नहीं मिली है, जो अन्य पूर्ण राज्यों को प्राप्त है। केंद्र को आज की तरह वहां सेना, अर्धसैनिक बल तैनात करने का ही अधिकार नहीं होगा, बल्कि वहां की पुलिस भी पूरी तरह केंद्र के नियंत्रण में होगी। निश्चय ही यह विलय के समय हुए समझौते और संविधान सभा द्वारा किये गये प्रावधानों का उल्लंघन है। जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख के भारत में पूर्ण विलय का चाहे जो दावा किया जा रहा हो, लेकिन पिछले पांच सालों में वहां चुनाव का न होना बताता है कि सब कुछ सही नहीं है।

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे क़दम उठाती रही है, जिसका मक़सद हिंदुओं को एकजुट करना है, ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दें। उनके और मुसलमानों के बीच इस हद तक विभाजन पैदा करना है, जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला गोमांस या गो-तस्करी का हो या लव जिहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मक़सद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाये, जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मक़सद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफ़रत और घृणा भर दें (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सकें और मौक़ा लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जायें। इसी मुस्लिम विरोधी घृणा प्रचार का नतीजा है कि एक चलती ट्रेन में एक सिपाही चार मुसलमानों की गोली मारकर हत्या कर देता है। हिंदू समुदाय का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा यह मानने लगा है कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं, जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही हैं। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं, भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई क़दम उठाया गया है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाये। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए ख़तरा बताया जाये। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाये और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है, तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य हैं, यह हिंदू अपने दिमाग़ में बैठा ले। इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक कश्मीर के मुसलमान की नकारात्मक छवि बनाना, जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिये और देश के लिए ख़तरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते, तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसी के लिए नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) लाया गया है, जिसका अगला क़दम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को, चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो, उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहां तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, उन सभी लोगों की नागरिकता ख़तरे में पड़ जायेगी जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी। चार साल से रुका हुआ क़ानून अब लागू हो चुका है और 2024 के चुनाव के बाद यह व्यवहार में कितना ख़तरनाक साबित होगा, यह कहना फ़िलहाल मुश्किल है।

नरेंद्र मोदी सरकार के निशाने पर भारत की लोकतांत्रिक और संघात्मक संरचना है। दिल्ली राज्य को लेकर जो क़ानून संसद द्वारा पारित कराया गया है, उसके बाद दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास नाम मात्र को भी अधिकार नहीं रह गये हैं। उनके हर फ़ैसले को उपराज्यपाल बदल सकेगा। यहां तक कि एक मंत्री से ज़्यादा हैसियत एक सचिव की होगी। स्प्ष्ट ही यह क़ानून भारत के संघात्मक ढांचे पर प्रहार है और इस बात का ख़तरा है कि इस तरह के क़ानून भविष्य में दूसरे राज्यों पर भी लागू किये जा सकते हैं। सूचना के अधिकार क़ानून को कमज़ोर बनाया जा चुका है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं। इसी तरह कई आपराधिक और दंडात्मक क़ानून बदले गये हैं। उनके केवल हिंदी नाम नहीं रखे गये हैं, बल्कि उन्हें पहले से ज़्यादा कठोर बना दिया गया है। दावा भले ही इससे उलट किया गया हो। मसलन, धारा 124 जो देशद्रोह से संबंधित क़ानून है और जो अंगरेजों के समय से चला आ रहा था और जिसे हटाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी, उसे हटा दिया गया है। संसद में इस कानून को समाप्त करने की घोषणा करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आज़ाद भारत में इस तरह के क़ानून नहीं होने चाहिए और सबको अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। लेकिन इस क़ानून की जगह अब जो नया क़ानून लाया जा रहा है, उसमें वे सभी प्रावधान हैं, जो धारा 124 में थे।

यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि पिछले दस साल में इसी सरकार ने धारा 124 का काफ़ी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसे क़ानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है, जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव मामले में पांच साल से ज़्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुक़दमा चलाये जेलों में बंद है। इसी तरह बिना किसी सबूत के उमर ख़ालिद को तीन साल से जेल में बंद रखा गया है। क़ानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमान हैं, जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोज़र के द्वारा धराशायी किया गया है। अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूंह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोज़र से धराशायी कर दिये गये। न्याय करने का यह ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ा है, लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों द्वारा आगे सुनवाई हो, उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया।

दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है, जो इस सांप्रदायिक-फ़ासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। संसद का हाल हम देख रहे हैं, जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमंत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से ज़रूरी विधेयक बिना बहस-मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज़्यादा विरोध करता है, तो उसे निलंबित कर दिया जाता है। अभी कुछ ही समय पहले लगभग एक साथ विपक्षी दलों के 146 सदस्यों को निलंबित कर दिया गया और उनकी अनुपस्थिति में कई जनविरोधी क़ानून पास करा लिये गये। इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फ़ैसले न्याय से नहीं, बल्कि सत्ता की राजनीतिक ज़रूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सज़ा दी गयी, वह इसका ठोस प्रमाण है। अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीक़ा अपनाया गया, वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बैंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक संसद क़ानून नहीं बनाता, तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अब संसद में सरकार ने क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित किया है कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी, उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न रहें और उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त एक केबिनेट मंत्री होगा। स्प्ष्ट है कि केबिनेट मंत्री कभी भी अपने प्रधानमंत्री के विरुद्ध नहीं जायेगा। इसलिए भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति दरअसल प्रधानमंत्री द्वारा होगी। विपक्ष के नेता पक्ष में रहे या विपक्ष में, उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। कुछ दिनों पहले दो चुनाव आयुक्त इसी प्रक्रिया से नियुक्त कर दिये गये।

ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन करते हैं। इसका एक मक़सद हिंदू राष्ट्र की दिशा में क़दम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ़ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमज़ोर करना है। ये दोनों मक़सद दरअसल एक ही हैं। आशुतोष वार्ष्णेय का यह कहना सही प्रतीत होता है कि अगर नरेंद्र मोदी 2024 में जीतकर आते हैं, तो वे क़ानूनों में ऐसे बदलाव कर सकते हैं, जिससे मुसलमान भारत का दोयम दर्जे का नागरिक रह जायेगा। अभी संविधान में जो अधिकार अन्य समुदायों के साथ-साथ उन्हें भी मिला हुआ है, उनमें से बहुत से अधिकार उनसे छीने जा सकते हैं, जैसा कि किसी समय अमरीका के कुछ राज्यों में अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ किया गया था।

हो सकता है कि फ़ौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालत को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं, लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन-ब-दिन बढ़ती जायेंगी, उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोज़गारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीक़े हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जायेगा, तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं, संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है, वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफ़रत मुसलमानों से करता है, उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है, वह भी उनसे छीन ली जाये।

सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है, जिसे वे ख़त्म न कर सकें, तो पूरी तरह से कमज़ोर और निष्प्रभावी ज़रूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं, इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है। 2024 का लोकसभा चुनाव इस बात की परीक्षा होगी कि हम लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित अपने संविधान की रक्षा कर पायेंगे या नहीं। मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष उन सब भारतीयों का कर्त्तव्य है जो भारतीय संविधान में यक़ीन करते हैं और जो भारत की बहुविध धार्मिक, जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखना चाहते हैं, क्योंकि असली भारत इसी परंपरा में निहित है, जिसे हिंदुत्वपरस्त ताक़तें ख़त्म करना चाहती हैं। इसके लिए प्रत्येक भारतीय का यह कर्त्तव्य है कि वह आगामी चुनावों में वोट देकर भाजपा और उनकी समर्थक पार्टियों को सत्ता से बाहर करें।

 

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