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लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी भले ही सीटों के मामले में अपने घोषित लक्ष्य से पीछे रह गए हों , किन्तु चुनौती स्वीकार करने की उनकी जिजीविषा स्पष्ट है। पिछले तीन दिनों से उनके भाषण, बाडी लैंग्वेज बता रही है कि वे राजग की सरकार को उसी अंदाज से चलाना चाहते हैं, जैसी सरकार वे अब तक चलाते आए हैं। सहयोगी दलों से मिली पूर्ण आश्वस्ति के पश्चात मोदी ने अपने नेता पद पर चयन के बाद ‘बहुमत’ से नहीं बल्कि ‘सर्वमत’ से सरकार चलाने की बात कही है। वैसे भी चंद्रबाबू नायडू तथा नीतिश कुमार की ज्यादा रूचि अपने राज्यों की राजनीति में हैं। इसलिए सीधे तौर पर दो बड़े सहयोगी दलों तेलुगु देशम और जनता दल (यूनाइटेड) से कोई तात्कालिक चुनौती नहीं है। इसके साथ ही ‘सुशासन’ मोदी, नायडू और नीतिश तीनों की प्राथमिकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पिछले 22 वर्षों से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर रहते हुए सरकारों का नेतृत्व कर रहे हैं। उनमें सबको साथ लेकर चलने की अभूतपूर्व क्षमता है। सुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीरो टालरेंस उनकी कार्यशैली है। यह बात उन्होंने इस बार भी स्पष्ट कर दी है। लंबे नेतृत्व अनुभव ने उनमें साथियों के प्रति सद्भाव और अभिभावकत्व भी पैदा किया है। ( प्रो.संजय द्विवेदी लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं) उन्होंने यह भी कहा कि उनके लिए एनडीए का हर एक सांसद समान है। मोदी जब 2014 में प्रधानमंत्री बने तब यह बात काफी कही गई थी कि उन्हें दिल्ली की समझ नहीं है। विदेश नीति जैसे विषयों पर क्या मोदी नेतृत्व दे पाएंगे। जबकि पिछले 10 वर्षों में मोदी ने इन दोनों प्रारंभिक धारणाओं को खारिज किया। ऐसे में गठबंधन सरकार का नेतृत्व वे सफलतापूर्वक करेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
सत्ता के संकटों और सीमाओं के बाद भी नरेंद्र मोदी ने अपने विजन और नेतृत्व क्षमता से लंबी लकीर खींची है। गहरी राष्ट्रीय चेतना से लबरेज उनका व्यक्तित्व एनडीए की चुनावी सफलताओं की गारंटी बन गया है। अब जबकि एनडीए के लगभग 303 सांसद हो चुके हैं,तब यह मानना ही पड़ेगा यह सरकार आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और सामाजिक कल्याण की योजनाएं लागू करते हुए तेज़ी से आगे बढ़ेगी। अरूणाचल प्रदेश, उड़ीसा की राज्य सरकारें मोदी मैजिक का ही परिणाम है। केरल में खाता खोलने के साथ तेलंगाना, आंध्र और कर्नाटक के परिणाम दक्षिण भारत में भाजपा की बढ़ती स्वीकार्यता बताते हैं। इन परिणामों में नरेंद्र मोदी की छवि और उनका परिश्रम संयुक्त है।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान,बंगाल और महाराष्ट्र से गंभीर नुकसान के बाद भी सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को जिताकर ले आना और एनडीए को बहुमत दिलाने में उनकी खास भूमिका है। एनडीए सांसद और सहयोगी दल भी मानते हैं उन्हें मोदी की छवि का फायदा अपने-अपने क्षेत्रों में मिला है। 10 साल के सत्ता विरोधी रूझानों के बाद भी अन्य क्षेत्रों में विस्तार करते हुए भाजपा और एनडीए अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रहे, यह साधारण बात नहीं है।
राजग ने चुनावी जंग में मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश की सभी सीटें जीत लीं। बावजूद इसके अपराजेय समझे जाने वाले ‘मोदी -योगी ब्रांड’ को उत्तर प्रदेश में बहुत गहरा झटका लगा है। प्रधानमंत्री की वाराणसी में जीत के अंतर को भी विरोधी रेखांकित कर रहे हैं। अयोध्या की हार मीडिया की सबसे बड़ी खबर बन गयी है। जाहिर तौर पर इसे लोकतंत्र की खूबसूरती ही मानना चाहिए। इसलिए इसे जनादेश कहते हैं। आरक्षण और संविधान बदलाव के भ्रामक प्रचार ने जैसा उत्तर प्रदेश में असर दिखाया है , संभव है बिहार में चिराग पासवान और जीतनराम मांझी गठबंधन में न होते तो वहां भी ऐसा ही नुकसान संभावित था।
कांग्रेस और उसके गठबंधन को निश्चित ही बड़ी सफलता मिली है। इसके चलते संसद और उसके बाहर मोदी सरकार को चुनौतियां मिलती रहेंगी। विपक्ष का बढ़ा आत्मविश्वास क्या आनेवाले समय में सरकार के लिए संकट खड़ा कर पाएगा, इसे देखना रोचक होगा।
भारतीय लोकतंत्र वैसे भी निरंतर परिपक्व हुआ है। सर्वसमावेशी होना उसका स्वभाव है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ ही मोदी मंत्र रहा है। बाद में मोदी ने इसमें दो चीजें और जोड़ीं ‘सबका विश्वास और सबका प्रयास’। गठबंधन सरकार चलाने के लिए इससे अच्छा मंत्र क्या हो सकता है। मोदी और उनकी पार्टी ने विकसित भारत बनाने का कठिन उत्तरदायित्व लिया है, वे इस संकल्प को पूरा करने के लिए प्रयास करेंगे तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।