कोई हमें बताएगा कि मोदी जी के विरोधियों को सर्दी में ही उनका विरोध करने की क्यों सूझती हैॽ एनआरसी के विरोध के नाम पर शाहीनबाग किया‚ सर्दियों में। किसान बार्डरों पर आकर जम गए‚ तो सर्दियों में। बल्कि किसान तो एक सर्दी में आए‚ तो अगली सर्दी भी आधी काटकर ही उठे। और अब बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री रोकने–दिखाने का झंझट हो रहा है‚ तो वह भी सर्दियों में। क्या मोदी जी ने तेल–वेल की कीमतें वाकई इतनी बढ़ी दी हैं कि विरोधियों को सर्दी में गर्मी के एहसास के लिए‚ हर सर्दी जिंदाबाद–मुर्दाबाद करना पड़ रहा है! लगता है कि मोदी जी के विरोध से वाकई गर्मी का एहसास तो होता है‚ तभी तो पट्ठे राहुल गांधी ने तो आधी बाजू के टी–शर्ट में ही इस बार की सर्दी निकाल दी है।
खैर! सर्दी से प्राण रक्षा के लिए हो तब भी‚ विरोधियों का सिर्फ विरोध के लिए मोदी जी का विरोध करना तो सही नहीं है। आखिर‚ विरोध का भी कुछ तो सिद्धांत होना चाहिए। अब ये क्या बात हुई कि एनआरसी वाले टैम पर मोदी जी भारतीयों से अपना भारतीय होना साबित करने के लिए‚ कागज दिखाने को कह रहे थे‚ तो ये गा–गाकर उनका विरोध कर रहे थे कि‚ ‘कागज नहीं दिखाएंगे’। यूपी–वूपी में तो बात बढ़कर ‘लाठी–गोली खाएंगे‚ पर कागज नहीं दिखाएंगे’ तक पहुंच गई। वह तो कोरोना जी बीच में आ गए‚ वर्ना कौन जाने क्या होता! और अब, जब मोदी जी कह रहे हैं कि 2002 की उनकी बीबीसी वाली फिल्म न कोई देखे और न कोई दिखाए‚ तो पट्ठे फिर उल्टेे चल पड़े हैं कि‚ ‘हम फिल्म जरूर दिखाएंगे’। डर तो इस बात का है कि इस बार भी मामला ‘लाठी–गोली खाएंगे‚ पर फिल्लम जरूर दिखाएंगे’ पर न पहुंच जाए! डर भी बेवजह नहीं है। वही जेएनयू है। वही जामिया है। वही हैदराबाद यूनिवर्सिटी है। वही केरल है। बस एक शाहीनबाग की कसर रहती है! बेचारे भगवाई बदले में ‘पठान’ देखने की इजाजत देने को तैयार भी हो गए‚ पर इनके लिए तो वह भी पर्याप्त हॉट नहीं है। पर इन्हें शाहरुख–दीपिका का रोमांस और रोमांच भी नहीं‚ अब तो मोदी जी की 2002 वाली हॉरर फिल्म ही देखनी है! बाइ गॉड, सर्दी में गर्मी के इस एहसास के लिए‚ ये पुराने भारत वाले क्या–क्या नहीं करेंगे!