
बीजापुर में एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। मृतक पत्रकार और आरोपी ठेकेदार दोनों अपना जीवन खो बैठे। पत्रकार को तो ठेकेदार ने मार डाला, ठेकेदार स्वयं भी जीरो हो गया। शासन ने उसका सबकुछ जप्त कर लिया, जितना अवैध तरीके से कमाया था।
जितनी दादागिरी और रिश्वतखोरी संभव थी उतना करके उसने करोड़ों की कमाई की थी। उसका विशाल 5 एकड़ का अवैध निर्माण सरकार ने तोड़ दिया।
किसी ने बताया कि आरोपी पर करोड़ों की जीएसटी बकाया है जिसे वसूली की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है।
यहां प्रश्न उठता है कि जब अवैध निर्माण हो रहा था तो फिर सरकारी महकमें ने रोका क्यांे नहीं। इतना बड़ा अमला है जो लाखांे रूप्ये लेता है वो क्या करोड़ों की काली कमाई के लिये तैनात किया गया है। या उसकी कोई जवाबदेही भी इसी
पर माथा टेकते थे क्या ? या इस मामले में उनके आंखों की रौशनी चली गयी थी ? ये कार्यवाहियंा आज क्यांे हो रही हैं और पहले से क्यांे नहीं हुईं ? जाहिर है सरकारी लोगों को आरामखोरी का लाईसेंस प्राप्त है।
उनको टाईट करने वाले खुद भी उसी माटी के बने हैं। रग-रग में बेरहम घूसखोरी का खून दौड़ रहा है। कौन किसके खिलाफ कार्यवाही करेगा, जब सारे चोर हैं। इक्का-दुक्का कोई ईमानदार आ जाता है तो ये लोग मिलकर उनका शिकार कर लेते हैं या उसका तबादला करा देते हैं।
यदि सरकार ने आरोपी ठेकेदार के काले कारनामों पर अंकुश लगाया होता तो उसका मनोबल इतना नहीं बढ़ता। वो शासन को अपनी जेब में नही समझने लगता और इससे वो इतना बड़ा अपराध करने से बचता। मृतक और आरोपी दोनों का परिवार तहस-नहस होने से बच जाता।
दुर्घटनाएं और अपराध
असली अपराधी अफसर
चारों ओर नज़र घुमाकर देख लीजिये। जितनी भी दुर्घटनाएं होती हैं या जितने भी अपराध होते हैं। उन सब में प्रत्यक्ष आरोपी के अलावा एक पक्ष और होता है जो जवाबदार होता है, मगर उस पर कोई आंच नहीं आती। जबकि उसी की बेईमानी, धन-पिपासा और बेरहमी के कारण ये दुर्घटनाएं और अपराध होते हैं।
इनमें आमजन की भूमिका तभी संभव होती है जब वो पक्ष स्वीकृति दे या लापरवाह न हो। और वो पक्ष है सरकारी अफसरों का। कुछ बरस पूर्व पण्डरी के एक गटर का होल खुला होने के कारण बारिश के पानी में दिख नहीं रहा था। ऐसे में एक नवयुवक अपनी स्कूटर सहित उसमे गिर गया। वो किसी को दिखा तक नहीं। यदि दिखता भी तो भारी बारिश में नाले के तेज बहाव में उसे बचाना लगभग नामुमकिन था।
ये दुर्घटना क्यों हुई ? ज़रा सोचिये। शहर के अंदर उस तेज बहाव वाले गटर के उपर ढक्कन लगाने की जवाबदारी किसकी थी ? सड़क बनाने वाले विभाग की या नगर निगम की। इतनी मार्मिक घटना। बिना किसी कारण के एक युवक की अकाल मृत्यु…. और आज तक ये पता नहीं चला कि किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही की गयी हो।
रिश्वतखोर, लापरवाह, बेरहम अफसरों को आम आदमी की तकलीफ से क्या लेना-देना ? उसे तो अपनी कमाई से मतलब है। अफसर के लिये किसी इंसान की जान की कीमत उसकी कमाई से अधिक नहीं है।
रिश्वत लेकर अफसरों ने गलत कागजों पर दी स्वीकृति
संजय बाजपेई बहुत बड़े बिल्डर का नाम है। जिनका स्वर्गवास हो गया बेहद तनाव से हार्ट अटैक होने के कारण। उन्होंने कुछ काॅलोनियां बनाईं स्वागत विहार के नाम से। लोगों को जमीने ं बचीं। इसमें आरोप है कि उन्होंने कुछ अनियमितताएं भी कीं। एक समय बाद गफलत सामने आ गयी। सरकार ने उन्हे घेर लिया। पुलिस केस बन गया। लगभग छह माह बाजपेई को जेल में रहना पड़ा। अंततः तनाव ने बाजपेई की जान ले ली।
वो जितना बड़ा घपला था, वो बिना सरकारी संरक्षण के संभव नहीं था। नकली कागजात बनाने की चर्चा थी। नकली कागजों पर सरकारी अनुमति की चर्चा थी। तो क्या सरकारी अफसर इतने नाकाबिल हैं कि करोड़ों के प्रोजेक्ट में एक आम बिल्डर उन्हें अंधेरे में रखकर साईन करवा ले ? वास्तव में ये सरासर बेईमानी का मामला है। हायतौबा तो बड़ी मची। कुछ अखबारों ने भी हल्ला किया।
चर्चा ये कि इस करोड़ों के काले खेल में कई करोड़ रूप्ये रिश्वत में बांटे गये। हमारे यहां जायज काम के लिये रिश्वत देने का कठोर नियम है तो नाजायज काम के लिये तो देनी ही पड़ेगी।
ऐसे में अफसरांे की जांच क्यांे नहीं की गयी। उनसे क्यों नहीं पूछा गया कि बिना पूरी जांच किये आप ने परमीशन कैसे देते रहे।
——————————-जवाहर नागदेव वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक, विश्लेषक, मोबा. 9522170700‘बिना छेड़छाड़ के लेख का प्रकाशन किया जा सकता है’—————————————–